इंतज़ार करती है औरत - नीता झा

 इंतज़ार करती है औरत..चाहे घर आते ही सताए..
 पर देहरी पे आंख लगाए..देखती रहती है औरत!!
 क्यों इंतज़ार करती है? कैसा  लगता होगा जब..
 घण्टों लगा बनाए  सुस्वादु खाने में कमी सुन भी!!
 मौन रह उलाहने अनसुनी कर माफी भी मांगती..
 सारी जिम्मेदारी निभा भी कामचोर कहने पर भी!!
 सारे काम से खुद गलतियों को सुधारती औरत..
 सर्वगुणसम्पन्न के सम्मान से नवाजे जाने पर भी!!
 पति का औरों को ताकते दूसरों में मगन देखना..
 अपनी खुशियां औरों कि होते देख भी मुस्कुराना!!
घूंघट से लोलुप नजरों की बदमाशियां देखना,..
अपनी तमाम उपलब्धियां ताक में रख कर!!
औरों के सुर में सुर मिला जीवन यूंही बिताना..
भूल अपनी परवरिश के सारे सबक बस!!
नए रिश्ते की इबारतें कंठस्थ कर जीना..
शादी के पवित्र बंधन को निभाने ताउम्र!!
अकेले ही तमाम जतन करते ही जाना..
 और भी बहुत कुछ घिनौनी मजबूरियां!!
 क्यों सहती है औरत खुद नही जानती..
 गर्भभस्थ शिशु की ममतामयी जननी!!
 सींचती है उसे अपनी अदम्य शक्ति से..
 न्योछावर करती अपना व्यक्तित्व सारा!!
 बन जाती है उनके साथ शिशु सी हल्की..
 फिर जीती है उसके साथ अपना बचपन!!
 गढ़ने लगती है उसे कुशल शिल्पकार सी..
 किसी को बिना बताए और बिना जताए!!
 फर्क नहीं पड़ता नाम जुड़े न जुड़े उसका..
 समूचा अस्तित्व उसी का तो प्रतिरूप है!!
 प्रकृति के पटल पर अमिट दस्तख़त.. 
 सम्हालती रही जतन से नाकामयाबी !!
  सबका कोपभाजन सिर्फ वही बनती..
  और सह लेती है अब भी सब चुपचाप!!
 क्यों नही कहती की क्या क्यों नही लपक लेती..
 तमाम उपलब्धियों को जो आनन्द की पर्याय हैं!!
 क्यों बेसुरा ही सही गाती नही मुक्त कंठ से,..
 थिरकती नही उन्मुक्त,हंसती नही ठहाके लगा !!
और जीती नही कुछ पल खुद को खुश रखने..
 क्या मिलता है दूसरों पर सबकुछ लुटा कर!!
 अपनी संचित ऊर्जा से खुद को मिटा कर..
 कुछ नही... निसन्देह कुछ भी नही!!
सिवाय  इस विचार कि ये तुम्हारा काम है..
 तुम्हे हम सब देते हैं खाना, जेवर कपड़ा!!
 नाम,गोत्र, पहचान और तुम दोगी बदले में..
 सारा कुछ यहां तक कि अपने आप को भी!!
 ये स्त्रीजाती से किया पुरुषसमाज का सौदा..
 जिसे निभाती है ताउम्र खुद को दिलासे देती!!
कमजोरियों को मासूमियत का जामा पहनाती..
सुरक्षा के नाम पिता से पुत्र तक,गर्भ से कब्र तक!!
 छली जाती है लगातार जरूरत के आधार पर..
 जब चाहे अपनाई और ठुकराई जाती है!!
 इंतज़ार करती है औरत, चाहे सदियां बीते..
 चौखट से सिर टिकाए किसी चमत्कार का!!

हम चाहे इक्कीसवीं सदी में क्यों न पहुंच गए हों किन्तु आज भी अधिकांश महिलाएं बेहतर स्वास्थ्य, शिक्षा, भोजन, अपने हक को लेकर उतनी जागरूक नहीं हैं। जो जागरूक हैं भी तो उन्हें अपने हक की लंबी चलने वाली लड़ाई में बहुत सी बढ़े भी झेलनी पड़ती हूं
 
            नीता झा

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