स्त्री - (कविता) नीता झा
स्त्री जब जाए
मर्यादा के बाहर
पांव की बिछिया
उलझ जाती है
देहरी की पायदान से
स्त्री जब जाए
मर्यादा से बाहर।
पांव की पायल
शोर मचाती है
अपने छोटे छोटे घुंघरुओं से
रुकने की मनुहार करती है
स्त्री जब जाए मर्यादा के बाहर
कमर की करघनी
अवगत करती है
बोझ भरी जिम्मेदारी से
स्त्री जब जाए मर्यादा के बाहर
उसके मंगलसूत्र के
एक एक मनके
खिंच लाते हैं वापस
घरकी चारदीवारी के भीतर
स्त्री जब जाए मर्यादा के बाहर
मांगटिका ज्ञानचक्षु को
ढँक लेता है और
सामाजिक मायाजाल के
सम्मोहक दायित्वों के नाम
ता-उम्र समझौते करवाता है
स्त्री जब जाए
मर्यादा के बाहर
उसका लिबास
उसे ढंक लेता है
छुपा लेता है उसे
सारे कुत्सित जनो से
सबसे छुपाए रखता है
सात पिंजरों के भीतर
रंगमहल में रखलेता है
मर्यादा के चटकीले
भ्रामक गहनो से खूब सजा
पर स्त्री की खुशी क्या है?
उसकी काबिलियत क्या है?
और उसका दृष्टिकोण क्या है?
कोई नही पूछता,
वो क्या चाहती है
पुरुषप्रधान समाज
पूछ नही पाता
क्योंकि घबराता है
स्त्री से और उसकी
अदम्य इक्छा शक्ति से
फिर उसे डराता है
तरह तरह की कथाओं से,
बहकाता है
भावनाओं के नाम पे,
कैद करता है
सुरक्षा के नाम पे,
सौदे करता है
आधुनिकता के नाम पे
और अंततः उसका
सर्वस्व निगल जाता है
सहचर्य के नाम पे
और स्त्री
बार बार छली जाती है
झूठे विश्वास के नाम पे
और एक सवाल पूछती है
मर्यादा है क्या?
क्यों पुरुष को इसकी फिक्र नही
क्यों पुरुष तीज के व्रत नही रखता
जब स्त्री सुहाग की लंबी उम्र मांगती है
पुरुष क्यों व्रत नहीं रखता पत्नी के लिए
क्या प्यार की अभिलाषा सिर्फ स्त्री को है
क्या पुरुष के लिए स्त्री की कोई फिक्र नही
क्यों वो कोई सुहाग चिन्ह नही लगता
क्योंकि वो पुरुष है,अपने घर मे होता है
और इसकारण अपनी शर्तों पर जीता है।
और स्त्री दो कुलों की लाज बचाती पर
ये एक कड़वा सत्य है स्त्री का कोई घर नहीं
नीता झा
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