दूर के आती आवाज़ें समझ मे तो नहीं आ रही थीं। लेकिन हां, ये समझ मे आ रहा था ये केवल महिलाओं और बालिकाओं की पतली पर दृढ़ता लिए आवाज़ थी। एक पल को मन किसी आशंका की सोच घबराया वह डर गई घूंघट सम्हालती हुई अपनी कुपोषित दुधमुंही बेटी को बगल में दबाए आंगन के कोने की दीवार से सटकर खड़ी हो गई। बाहर दूसरे किनारे पर माँ बाबूजी लोग तख्त में बैठे बतिया रहे थे। अनायास ही उनलोगों का ध्यान भी उस मद्धम से तेज होती आवाज की तरफ गया गांव की मुख्य सड़क से बहुत सी महिलाएं हाथों में झंडे लिए इसी तरफ आ रही थीं आस पास के सभी घरों से लोग कौतूहलता वश बाहर निकलने लगे थे।
अचानक बाबूजी की नजर अपनी बहू पर पड़ी वो बिफर ये बाहर क्या कर रही है?
भेजो इसको अंदर अपने घर से सिख के नहीं आई तो क्या तुम नहीं सीखा सकतीं?
उनके आग्नेय नेत्रों को देख माँ भी सहम गईं
वो अंदर जाने को मुड़ ही रही थी कि दूर से पदमनी हाथ हिलती हुई चिल्लाई काकी,भौजी जल्दी बाहर आओ महिला दिवस की रैली है.....
उधर बाबूजी लगातार बड़बड़ाए जा रहे थे। पता नहीं ये कौन लोग हैं ?
क्या चाहते हैं?
तब तक माँ भी बहु के पास आ गई थीं। उन्होंने धीरे से हाथ पकड़ा और बोलीं "चलो अंदर तुम्हारे बाबूजी गुस्सा कर रहे हैं....
वो पूछना चाहती थी इसी गुस्से को तो खत्म करना है माँ सभी औरतों को संगठित हो कर....पर बोली कुछ नहीं बस मन ही मन प्रतिज्ञा की अगले साल के जुलूस में जरूर जाएगी। सबसे आगे जुलूस का प्रतिनिधित्व करेगी आखिर पढ़ाई - लिखाई किस दिन काम आएगी।
इस निश्चय के साथ ही घर की देहरी में बलपूर्वक पांव रखती हुई अपनी प्रतिज्ञा बुदबुदाती हुई घर के अंदर घुस गई और मन वहीं जुलूस के पीछे छोड़ आई।
नीता झा
वाह ।
जवाब देंहटाएंइतने में ढेर सी
धन्यवाद
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