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एक बरस घर रह कर देखा - नीता झा

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एक बरस घर रह कर देखा... मेरी वाली भी खूब गाती है।। सुरीली तान छेड़ छेड़ कर... कोयल सी तान सुनाती है।। बजे अगर संगीत पसंद का... ठुमके मजे के लगती भी है।। एक बरस घर रह कर देखा... शोखियों भरी इतर शीशी सी।। खोले ज़ुल्फें गीली भीगी वह... झूम झूम कर इतराती भी है।। सूखे बालों को अदब से यारो... मुस्काती इठलाती सहलाती है।। एक बरस घर रह कर देखा... नाफ़ कमर पर साड़ी लपेटे।। बड़े जतन से घण्टों थक कर... जब वो घर सारा चमकती है।। माथे आएं स्वेद बूंदें फिर भी... सिंगार पूरे घर का करती है।। एक बरस घर रह कर देखा... सास ससुर की लाडो रानी।। अधर मुस्कान से सहज रह... कितने जतन उनके करती।। श्रवण कुमार का दम्भ मेरा... चुटकी में उड़ाती जाती है।। एक बरस घर रह कर देखा... अहम फैसले या छोटे मोटे।। सब में राय निष्पक्ष दे वह... मसले सहज सुलझाती है।। आत्मीय, मृदुभाषी मित्रवत... निश्छल सबके दिल मे बसती।। एक बरस घर रह कर देखा... घर के दुख में झुलस, सूखती।। खुशियों में खिलखिलाती है... सारे कुनबे संग घुली-मिली।। अनुजों की पथ प्रदर्शक वह... बड़ों की मुस्कान बन जाती है।। नीता झा

यार तू पूरी पूरी किताब हो गई - नीता झा

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यार तू पूरी पूरी किताब हो गई मुझे चिंता नहीं रहती तू जो थी अब तू नहीं ये दुख भारी दे गई यार तू पूरी पूरी किताब हो गई हमारी ताउम्र की वो यादें सारी हर्फ़ दर हर्फ़ जेहन में सिमट गई यार तू पूरी पूरी किताब हो गई मेरी रोज़मर्रा की आदत से तू यादों के पन्नो में पैबस्त हो गई यार तू पूरी पूरी किताब हो गई कई दफा भूल जाती हूँ तू नहीं  फोन उठा सहसा याद आ गई यार तू पूरी पूरी किताब हो गई नीता झा मेरी प्यारी दोस्त को सादर समर्पित  

कहूं से घुमत - डोलत एक कविता मोर मेरन आईस... ओखर पहला लेन मेरन मोर समझ आइस....ये कविता कोई बाबू लोगन के लिखे आए..... माइ लोगिन के लिखाए होतीस त ओ लिखतीस.....

मुन्दरहा उठ, बने घर ल पोछ-झाड़... अंगना - परछी जम्मो लिप - खुटिया!! गाय,बछरू, कुकुर, बिलाई ल खवा... सियान बबा, दाई के दसना सकेल!! दतवन, मुखारी करा, लीम काढ़ा पिया... जम्मो झन बर चाय, काढ़ा उसन, पिया!! भात - बासी खवा, टीवी देखैया मन ला... एक कनी बुता झन तियार... खिसियहिं!! निपोर पढ़ई करथें ऑनलाइन देखत रही... कोनो ल नेटवर्क नई मिले के संसो रहिथे!! कोनो ल फेर पियाई, खवई के संसो रहिथे... कोनो ल रंग रंग के खाई - खजाना के संसो!! मेंअंगाकर रोटी बनवइया मोमो बनावतहों... में बपरी बरत रहीथों दीया कस आठों काल!! अऊ सुनत रहीथों ज्ञानी मन के गोठ-बानी... घर बईठे - बईठे ननद घलो रोठ कस होगेहे!! गऊ किन एक गिलास पानी नई पावस वो... ओखर लुगरा जम्मो घलो छोट होवत जाथे!! माइ पिल्ला झगड़ाक झगड़ी होवत रई थन... अंताक्षरी, लूडो, पत्ती पासा खेलत रई थन!! टुरा के बाबू के हाल चाल घलो बदल गेहे... घर भीतरी घुसरे घुसरे ओहु उज्जर होगेहे!! हमन का बनाबो सुघ्घर कलेवा बना लेथे... फेर रंधनी खोली के सजावट ल झन पूछ !! साग चुरावत तक जम्मो बर्तन छेका जाथे... फेर कुछु भी होवै ये सन्तोस करेजा जुड़ाथे!! घर भीतरी हांसत, खेलत दिन ह पहा जाथे.....