कहूं से घुमत - डोलत एक कविता मोर मेरन आईस... ओखर पहला लेन मेरन मोर समझ आइस....ये कविता कोई बाबू लोगन के लिखे आए..... माइ लोगिन के लिखाए होतीस त ओ लिखतीस.....

मुन्दरहा उठ, बने घर ल पोछ-झाड़...

अंगना - परछी जम्मो लिप - खुटिया!!

गाय,बछरू, कुकुर, बिलाई ल खवा...

सियान बबा, दाई के दसना सकेल!!

दतवन, मुखारी करा, लीम काढ़ा पिया...

जम्मो झन बर चाय, काढ़ा उसन, पिया!!

भात - बासी खवा, टीवी देखैया मन ला...

एक कनी बुता झन तियार... खिसियहिं!!

निपोर पढ़ई करथें ऑनलाइन देखत रही...

कोनो ल नेटवर्क नई मिले के संसो रहिथे!!

कोनो ल फेर पियाई, खवई के संसो रहिथे...

कोनो ल रंग रंग के खाई - खजाना के संसो!!

मेंअंगाकर रोटी बनवइया मोमो बनावतहों...

में बपरी बरत रहीथों दीया कस आठों काल!!

अऊ सुनत रहीथों ज्ञानी मन के गोठ-बानी...

घर बईठे - बईठे ननद घलो रोठ कस होगेहे!!

गऊ किन एक गिलास पानी नई पावस वो...

ओखर लुगरा जम्मो घलो छोट होवत जाथे!!

माइ पिल्ला झगड़ाक झगड़ी होवत रई थन...

अंताक्षरी, लूडो, पत्ती पासा खेलत रई थन!!

टुरा के बाबू के हाल चाल घलो बदल गेहे...

घर भीतरी घुसरे घुसरे ओहु उज्जर होगेहे!!

हमन का बनाबो सुघ्घर कलेवा बना लेथे...

फेर रंधनी खोली के सजावट ल झन पूछ !!

साग चुरावत तक जम्मो बर्तन छेका जाथे...

फेर कुछु भी होवै ये सन्तोस करेजा जुड़ाथे!!

घर भीतरी हांसत, खेलत दिन ह पहा जाथे...

घर भीतरी हांसत, खेलत दिन ह पहा जाथे!!

नीता झा

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