हे देवी (कविता) - नीता झा

हे देवी
हे देवी, हे शक्ति सुता
हे अन्नपूर्णा, हे माता
ये आदर जब मिलता है
मन होता कुछ पल भ्रमित
तब आल्हादित, पुलकित
खो जाती है स्त्री जाल में
उस समाज को जीती है
जिसे फर्क नहीं कुछ भी
उसके मन के अहसासों से
भ्रूण परीक्षण भी होते हैं
बाल विवाह भी होते हैं
बाल विधवा या सधवा
अलग अलग सांचे में ढलती
समाज की वेदना चुप सहती है
अवयस्क माता कुपोषित 
परिवार की रस्मों में उलझी सी
सबकी खातिर उपवास कर भी
भोग सभी को आग्रह से खिलाती
कमजोर काया मन भरमाया
खुद की दुश्मन खुद ही बनती
प्रायः दूसरों के बंदूक की नली
अपने कांधे खुद ही रखती
जीवन जीती दूसरों की शर्तो पर
अपने एक अदद घर को तरसती
सारे जग को अपना कहती
चलती है डगमग डगमग सी 
अपनी कमजोरी सब से छिपाती
दूसरों की पीड़ा में दौड़ पड़ती
 
नीता झा


टिप्पणियाँ

  1. बहुत सुंदर प्रस्तुति,,,, आपके मन में एक सुकोमल भाव छुपा है।

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  2. बहुत सुन्दर शब्दचित्र अनुभूतियों का प्रतिबिम्ब .......🙏

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  3. Bhabhi bhahut sundar hai. Mujhe to malum nahi tha ke aap itni acchi likthi ho

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत सुंदर वह मार्मिक अभिव्यक्ति 🙏

    जवाब देंहटाएं
  5. नारी की अंतरव्यथा ,अच्छे शब्दों में उकेरा है आपने,, अद्भभूत, एक एक शब्द द़िल को छूते हैं।

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