कहाँ गए वो दिन

बैठती नहीं चिड़िया दालानों में
जहां कभी झुंड लगाए रहतीं थीं
अब वो पेड़ भी नजर नहीं आते 
जहां चिड़ियों के होते थे घोंसले
वो फुदकती चिड़िया, गिलहरियां
और छोटे बड़े सारे जीव कहाँ गए
न जाने शायद हमसे रूठ से गए
शायद अब हममें हमसा कुछ नहीं
जो उन्हें हमसे जोड़े रखता था
कई मुट्ठी अनाज का वो आसरा
धीरे - धीरे हमने बन्द कर दिया
अब हम कुटुंब से परिवार हो गए
मुट्ठियों से अकेली मुट्ठी भी हो गए
 वो कुटुंब जहां कायदे सीमित होते
 पर फायदे हमेशाअसीमित होते थे
 जहां खाने के स्वाद,संवाद साझे होते 
 लोग बहुत पर फैसले एकमत होते
 घर की बातें घर तक रहती सीमित
 चाहे महीनों घर पर मेहमान होते
 हर रिश्ते की मिठास गजब और
 बड़ों की डांट से थी जान सूखती
 थी बड़ी सी रसोई, ढेरों बर्तन पर
 खड़कने की आवाज़ें ज़रा कम थी
नीम तले बनती ढेरों बड़ी, बिजौरी
भर - भर  मटकियों में डलते अचार
शाम की सब्जी, सुबह का अख़बार
दादी-बब्बजी का स्वभाव मिलनसार
दिन भर चढ़ी रहती देगची चाय की
कोई भूखा - प्यासा न लांघता देहरी
होतीं हर तरह के ज्ञान- धर्म की बातें
देशभक्ति, कर्तव्यपरायणता के होते
बड़े जतन से बीजारोपण बचपन से
बब्बजी की वो पोषक पीढियां गईं 
कटे पेड़ों ने कब ली दीवारों की शक्ल 
कब कई हिस्सों में कट गई साझी जमीन
और कब उड़ गईं सारी खुशियां रो कर
 पता न चला कब कटे वो कद्दावर पेड़
 जो सीना ताने खड़े होते हमारी अगवानी में
बादाम, निम, जामुन, इमली, और शहतूत
 सबके हम अपनी सुविधा से नाम रखते
 बड़े अदब से रोटी बनती गंगा, श्याम गायों की
 दरवाजे में छपरी लगाकर श्वान की चिंता होती
 और दो- चार पेट यूँ ही पलते बड़ों की आशीष से
 लोग चले गए पलायन कर और कुटुंब टूट गए
 अब न वो निम निमोली, न बातों की लम्बी रस्सी
 अब वो तीज आती नहीं जो बरबस खींच लातीं
  वो लड़कियों का टोली बना घूमना, झूला झूलना
  मेहंदी लगे हाथ आगे बढ़ा बड़े प्यार से 
  किसी और के हाथों भर पेट खाना खाना
  क्या आंगन के पेड़ों के साथ कट गए
  बहुत से छोटे छोटे अनमोल लम्हे या
  बंट गए छोटे छोटे घरों में महानगरों के
  चाहे जो भी हो याद आते हैं सभी सदा
शायद मैं भी याद हूं किसी किसी को सही

  ममतामयी रिश्तों के आँचल में बंधी
चन्द सिक्कों से बंधी दादी की 
  जिनकी छांव में गुजरते थे
  हमारे बचपन के लम्हे
नीता झा

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