दुल्हन
कंचन काया कुछ छुपी हुई..
कुछ बिजली सी कौंध रही!!
गहनों की रुनझुन लय संग..
संवाद प्रणय के बोल रही!!
शाल्मली सी काया में जब..
रेशम की कोमल पहरेदारी!!
तेरी नटखट अँखियाँ कह..
घूंघट से जाने क्या बोल रही!!
बंद अधर से संवाद करती..
तेरी भोली मुस्कान नशीली!!
बांध रही क्यों मोहपाश में..
तेरी निश्छल छवि निराली!!
सुध बुध कोई कैसे ना खोए..
जब मेनका हो सम्मुख खड़ी!!
तेरे रूप के कोलाहल में..
अस्तित्व मौन सा हो गया है!!
कंचन बदन की आंच में दहक..
मन पारे सा पिघल रहा है!!
नीता झा
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