ज़िंदगी - नीता झा

ज़िंदगी उतनी भी व्यस्त नहीं थी
जितनी हमने उसे बना रखी थी
रसोई के ख़ाली मर्तबानो से लम्हे
और उनके अजीबोगरीब मसले
रुतबे के नाम भरी थोथी कोशिशें
और उनसे उपजी दर्द की संगीने
सब थम गया हुई ज़रा सी आहट
और तमाम मुश्किलें रुक सी गईं
दहलीज़ के बाहर ही दुबक कर
और सज गए पुरसुकून लम्हे 
जिनका था बरसों से इंतज़ार
पक रही है बड़े अदब से दाल
सिंक रही है प्यार से नर्म रोटियां
जो बंद हुईं बाहरी रसोइयां तो
भा रही पुरी, सब्जी औरअचार

नीता झा

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