ज़िंदगी - नीता झा
जितनी हमने उसे बना रखी थी
रसोई के ख़ाली मर्तबानो से लम्हे
और उनके अजीबोगरीब मसले
रुतबे के नाम भरी थोथी कोशिशें
और उनसे उपजी दर्द की संगीने
सब थम गया हुई ज़रा सी आहट
और तमाम मुश्किलें रुक सी गईं
दहलीज़ के बाहर ही दुबक कर
और सज गए पुरसुकून लम्हे
जिनका था बरसों से इंतज़ार
पक रही है बड़े अदब से दाल
सिंक रही है प्यार से नर्म रोटियां
जो बंद हुईं बाहरी रसोइयां तो
भा रही पुरी, सब्जी औरअचार
नीता झा
Aaj ka sach aur behad acchi kavita .
जवाब देंहटाएं👌👌Bahut Khoob 👌👌
जवाब देंहटाएंWow.. 👏
जवाब देंहटाएंBahut hi achhi abhivakti
जवाब देंहटाएंBut sunder kavita
जवाब देंहटाएंबहुत प्यारी 😍
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