पगडंडी - नीता झा#
वहीं उम्मीद की पगडंडी थी
मैं चलता चिकनी चौड़ी सड़कों पर
मगर मंज़िल तक वो जाती न थी
जहां हुए सारे चिकने रास्ते बंद
वहीं से लगी पथरीली पगडंडी थी
इठलाती- बलखाती पतली पगडंडी
मंज़िल तक पहुंचाने का वादा करती
मुझे संग ले चलने को आतुर हठीली
चल पड़ा मैं भी उत्तुंग शिखर पर
कभी घने जंगलों से जगह ले उधार
चंचल हिरणी सी कुलांचे भरती
तो कहीं विशाल पर्वतों को लांघती
कभी नदियों झरनों संग घुलमिल
उनमें डूबती उतराती मजे कराती
अगले ही पल आगे बढ़ मुझे खींच
बरबस ही वह याद दिलाती
मंज़िल नहीं यह सिर्फ पड़ाव है
जाना अभी तो इन सबसे पार है
जो थी पहले पथरीली टेढ़ी मेढ़ी
लगती सुंदर अलबेली अपनी सी
मन भर जाता मंजिल निकट देख
मैं व्यथित रुक,रुक कर चलता
आ लगा अब अंतिम पड़ाव पर
मुझे ला इस पड़ाव पर वह भी
कुछ दूर ठिठक कर रुक गई है
सुनहरे सफर की याद दिलाती
परलोक के मुहाने पड़ी हुई है
नीता झा
उत्तम प्रयास ।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
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