उनके ओहदे - नीता झा
अब कुछ नहीं, वो गृहणी है।
सुना था लड़की डॉ है.....
अब कुछ नहीं वो गृहणी है।
सुना था लड़की वकील है....
अब कुछ नहीं, वो गृहणी है
सुना था लड़की प्रोफेसर है.....
अब कुछ नहीं वो गृहणी है
सुना था वो अभिनेत्री है......
अब कुछ नहीं, वो गृहणी है
कितने पदों को ढंकता सा
गृहणी का एक अकेला नाम
क्या है?
क्यों है?
किसके लिए?
किसकी मर्ज़ी से?
सभी बन जाती हैं अंततः
अपने सारे अस्तित्व को समेटे,...
गृहणी, गृहणी,गृहणी और गृहणी...
मन क्लांत,वाणी असंयमित,
वर्षों की मेहनत होती व्यर्थ।
रात- दिन की घण्टों पढ़ाई,
सारा मायके ही छोड़ आई।
सालों के अर्जित वो मैडल,
शिक्षा के वो झरने अविरल
थम गए बर्फ बन जम गए।
मायके में ही सारे जम गए।
शौक भी तो वहीं छोड़ आई
नए बैग में नए कपड़े, गहने।
आंचल में बांधे संस्कार लाई
नया श्रंगार, नया व्यवहार,
सबसे मिला आत्मीय प्यार
सहम-सहम कर बातें करना
सबसे पहले उठ भी जाना
कच्चा-पक्का जैसा भी पर
सबकी खातिर खाना पकाना
सबको खिला फिर खुद खाना
सब खुश नई बहु से बहुत पर
वो भूली नहीं पुरानी "खुद को"
पुराने घर में ऊधम मचाती
हंसती, गाती, झूमती, नाचती
अपनी मर्जी से जीवन जीती
पुराने सूती कपड़ों में इतराती
हां, बहुत याद करती अक्सर
वो अल्हड़ अपना सा जीवन
खुश अब भी है बहुत ज़िंदगी
खुद उसने भी तो हामी भरी
बहुत से रिश्तों में देख भाल
सोच समझ कर हां की थी
सब मन का ही तो हुआ है।
फिर जाने क्यों एक बंधन है?
"थी"और "है" के बीच की डोर
उलझी हुई आपस में मिली-गुंथी
कल और आज की रेशमी डोर
नीता झा
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