मर्यादा - नीता झा।

स्त्री जब जाए 
 मर्यादा के बाहर
पांव की बिछिया 
उलझ जाती है।
देहरी की पायदान से...
पांव की पायलशोर मचाती है।
अपने छोटे छोटे घुंघरुओं से
रुकने की मनुहार करती है।
स्त्री-------------बाहर
 करघनी अवगत करती है,
बोझ भरी जिम्मेदारी से।
स्त्री-------------बाहर
 मंगलसूत्र सारे मनके
खिंच लाते हैं वापस
 चारदीवारी के भीतर।
स्त्री--------------बाहर
मांगटिका ज्ञानचक्षु को 
ढंक देता सामाजिक 
सम्मोहक, दायित्वों के नाम।
स्त्रीे -----------------बाहर
उसका लिबास ढंक लेता है।
छुपा लेता है, कुत्सित जनो से
सात पिंजरों के भीतर, अपने
 रंगमहल में अपनी बना कर
 मर्यादा के ,चटकीले भ्रामक 
 गहनो से खूब सजा कर।
पर  स्त्री की खुशी क्या है?
उसकी काबिलियत क्या है?
और उसका दृष्टिकोण क्या है?
कोई नही पूछता ,वो क्या चाहती है...
पुरुषप्रधान समाज पूछ नही पाता
क्योंकि घबराता है, स्त्री से और उसकी
अदम्य इक्छा शक्ति से,
फिर उसे डराता है.....
 तरह तरह की कथाओं से,
बहकाता है, भावनाओं के नाम पे...
कैद करता है, सुरक्षा के नाम पे,
सौदे करता है, आधुनिकता के नाम पे
और अंततः ......
सर्वस्व निगलता है, सहचर्य के नाम पे.....
और स्त्री.....
बार बार छली जाती है,झूठे विश्वास के नाम पे।
और पूछती है सबसे सवाल....

मर्यादा है क्या?

क्या पुरुष को इसकी फिक्र नही ?
या स्त्री पुरुष से ज्यादा मजबूत है!
जब पत्नी पति की लंबी उम्र मांगती है!
पति क्यों व्रत नहीं रखता पत्नी के लिए ?
क्या प्यार की अभिलाषा सिर्फ स्त्री को है!
क्या पुरुष के लिए स्त्री की कोई फिक्र नही ?
या वह बेफिक्री में ही गर्वित किया जाता है!
क्यों वो कोई सुहाग चिन्ह नही लगाता ?
क्यों वह खुद को विवाहित नहीं दर्शाता ?
क्यों उसे दो कुलों के मान की फिक्र नहीं ?
क्योंकि वो पुरुष है,अपने घर मे होता है
और इस लिए अपनी शर्तों पर जीता है।
और स्त्री दो कुलों की लाज बचाती पर
 दोनों ही कुलों के विस्तृत वंशवृक्ष में
उसका लेश मात्र भी जिक्र नहीं।।
        नीता झा।

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