कहानी "विदेशों से आते वेंटिलेटर" के विषय मे - नीता झा
शिशु का जन्म अभिभवको के लिए ही नहीं अपितु सभी लोगों के लिए बड़ा सुखद होता है। बच्चों की मौजूदगी पूरे माहौल को गतिशील बनाती है। सबके साथ हंसते खेलते परवरिश पाने वाले बच्चे कब धिरे-धिरे बड़े होने लगते हैं , कब उनकी कोमल उंगलियां कॉपी-पेंसिल के साथ शौक की ओर बढ़ने लगती हैं, कब वो पड़ोस वाली मुन्नी बुआ से ड्रॉइंग बनाना सीखने लगते हैं, कब नन्हा बच्चा खाली डिब्बे को पैरों से उछलता हुआ मानू भैया से फुटबॉल सीखने लगता है पता ही नहीं चलता और कब वह आलोचनाओं, तारीफों के बीच शारीरिक ऊंचाइयों के साथ अपनी योग्यता का भी कद बढ़ता जाता है और कब वह अपनी मेहनत और योग्यता के माध्यम से अपना मुकाम पा लेता है। पता ही नहीं चलता। साथ ही उस शिशु के युवा होने के साथ उसके युवा माता-पिता कब बूढ़े हो जाते हैं पता ही नहीं चलता। अपनी बढ़ती उम्र और घटती शारीरिक, सामाजिक शक्तियों की कुंठा और उसके लिए किए गए उपायों को मैने अपनी कहानी "विदेशों से आते वेंटिलेटर " में विस्तार से उकेरने का प्रयास किया है। आशा करती हूं, हमेशा की तरह आपलोगों की आशीर्वाद रूपी प्रतिक्रिया मिलती रहेगी।
धन्यवाद
नीता झा
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें