पड़ाव ज़िंदगी के - नीता झा

नन्ही सुकोमल फूल सी बच्ची के जिम्मेदार, समझदार स्त्री तक का सफर अपने आप मे मीठे खारे का सम्मिश्रण ही तो है। अपने मायके में माता के आँचल का छोर पकड़ी, पिता के मजबूत व्यक्तित्व में सुरक्षित, सारे अपनो की लाडली बिटिया कभी रंगोली बनाती, कभी रोटी बनाती, कभी दादी नानी के संग पूजा के फूल तोड़ती, कभी दादा नाना से कहानियां सुनती कब वह भाई से नोकझोंक करने वाली अल्हड़ नदी सी नन्ही चिरैया, उसी भाई के हाथों शर्बत की मिठास ले, मायके के आंगन से विदा हो, ससुराल की दहलीज चढ़ नए लोगों, नए परिवेश में बड़े जतन और उल्लास से रोप दी जाती हैं।
 जहां एक नई माँ के आँचल का छोर और नए पिता के मज़बूत व्यक्तित्व के साए में वैसी ही सुरक्षित होती हैं। 
  यहां होता है जीवन भर का साथ निभाने वाला मित्रवत जीवन साथी और साथ ही गृहस्थी की प्यार भरी हजारों जिम्मेदारियां भी।
   मायके सी सुबह की कोमल रश्मियों की गुनगुनाहट नहीं दोपहरी की तप्त धूप सी ऊष्मा सा कर्तव्य मार्ग और जहां अपनी सारी अच्छाइयों की ऊर्जा से दोनों कुलों को रोशन कर अपनी सार्थक आमद झलकाने की जरूरत। 
   परी लोक की काल्पनिक कहानियां नहीं दादी सास, नानी सास की जीवन भर के अनुभव की संतुलित पाक कला से लेकर सभी क्षेत्रों में मिलता मार्गदर्शन और दादा ससुर, नाना ससुर की कुटुंब पोषक नियमावली जिनकी छांव में हर स्त्री को ढलना, बढ़ना होता है और हर कदम में थोड़े-थोड़े बढ़ते अनुभव से नए परिवार में खुद को स्थापित करना होता है। 
   वर-वधु दोनों के लिए यह सब सतत चलने वाली काफी हद तक मानसिक यात्रा होती है। जिसमे दोनों परिवारों का उचित मार्गदर्शन तथा मानसिक सम्बल भी बहुत जरूरी होता है।
          नीता झा 

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