कुछ लम्हे उधार रहे - नीता झा

        
मन करे तो उड़ जाऊं क्या?
सारे बंधन तोड़ चलूं क्या?
जीने की ख्वाहिश जो जागी..
सारे अपने छोड़ चलूं क्या?
पूछ रहा मन मेरा मुझसे...
सबकी ख़ातिर रुक जाऊं क्या?
दम घुटता है इस पिंजरे में...
कौन इसे घर कहता है!!
इसके हर कोने में सबका...
उटपटांग हुकुम ही चलता है!!
तभी कहीं से इक आवाज़ आई...
जिसको तू पिंजरा कहती है...
बेचैन बड़ी यहां फिरती है....
 इसी ने महफ़ूज रखा अबतक!!
सात वचनों से बंधा इक रिश्ता..
तुझपे ही तो है जान छिड़कता!!
चाहती गर जाना यहां से...
कुछ सपने तूझपे उधार रहे!!
अपनी तू तस्वीर लेती जा...
बाकी सब चेहरे उधार रहे!!
अपनी कंचन काया लेती जा...
मीठी छुवन के अहसास उधार रहे!!
अपनी डिग्री तू सारी लेती जा...
बच्चों की किलकारी उधार रही!!
अपने सारे समान लेती जा...
उनसे जुड़ी मुस्कान उधार रही!!
अपनी सारी खुशियां लेती जा...
मेरे ग़म के छाले उधार रहे!!
इस घर की मलिका है तू...
 हमारे कुछ  लम्हे उधार रहे!!
समझ गई थी उस आवाज़ को...
उसमें छलकते अधिकार को!!
वह मेरी ही तो प्रतिध्वनि थी...
जो मुझसे मुझे मिला रही थी!!

    नीता झा

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