बाबू उठ - नीता झा
मेरी यह कविता सरकार की जनकल्याण हेतु बनाई गई विभिन्न योजनाओं की सही तरह से ईमानदारी से क्रियान्वयन न किए जाने पर होने वाली दुश्वारियों पर "बाबू उठ झौंहं उठा" लिखी गई है। जिस तरफ शुद्ध हिंदी के कठिन शब्दों के तड़के में छत्तीसगढ़ी गाने गाकर कचरा उठाने की अपील की जाती है। वह समझ से परे है। पढ़िए अपनी प्रतिक्रिया दीजिए मेरी लेखनी में कुछ सुधार चाहते है अवश्य मार्गदर्शन कीजिए....
गोबर बिन के ला
सरकार ला बेच
दारू भट्टी जा
दारू खरीद
सरकार के मददकर
शान से दारू पी
कार्ड उठा
सस्ता अनाज ला
लॉक डाउन में बैठ
उसन के खा
कभी थाली बजा
कभी दिया जला
कभी हाथ जले तक धो
टीवी देख नया नया सीख
रान्ध- गढ़ के खा
सरकारी मैच देख
कोन बनही राजा
कौन बनही रंक
मने-मन बांच
फोन लगा चर्चा कर
माइ- पिल्ला ल गरिया
बचे दारू ल पानी संग पी
लॉक आउट में बाहर जा
गोबर बिन
सरकार ला बेच
टीवी देख पता लगा
कोन ह का गरी म फांसे
गुटूर-गुटूर साहब ल पूछ
निगम जा, पंचायत जा
चारो मुड़ा पता लगा
ए दारी का करे परही
टीवी देख, पेपर पढ़
लोगिन ल पूछ, बता
भीड़ लगा बीमारी बुला
बेमार होगे त झन बता
लापरवाही कर बेमारी फैला
फोकट के इलाज में भी
अस्पताल से भाग
माई-पिल्ला ल बेमार कर
फेर गिंगिया-
" सब लबारी हे कोई सरकार
हमर सुरता नई करे"
नीता झा
वाह बहुत खूब
जवाब देंहटाएंबहुत खूब दी
जवाब देंहटाएंवर्तमान की कविता
👌👌बहुत खूब
जवाब देंहटाएंBht shi true lines
जवाब देंहटाएंवाह बहुत खूबसूरत
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया अभिव्यक्ति यथार्थ ,,
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया समय अनुकूल ।
जवाब देंहटाएंआप सबो का बहुत बहुत धन्यवाद
जवाब देंहटाएंएकदम सही चित्रण👌👌
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