चिता फिर खूब सजी - नीता झा

चिता फिर खूब सजी थी...
चारों ओर अंधेरा था!!
पंचतत्व में विलीन हुई वो...
जिसे जीना अभी और था!!
तिल-तिल कर जुड़े कर्म...
वो उम्र, न समय मिला था!!

चिता फिर खूब सजी थी...
चारों ओर अंधेरा था!!
दुर्दशा पर जग भी रोया था!!
कुछ रोटी जो सिंकी नहीं थीं...
कुछ बातें जो कही नहीं थीं!!
माँ का कलेजा दहला था...

चिता फिर खूब सजी थी...
चारों ओर अंधेरा था!!
कुछ अरमान सन्दूक में धरे!!
कुछ वक्त पे पूरे करने थेे...
बचपन से जो ख्वाब देखे!!
उनमें भी तो रंग भरना था...

चिता फिर खूब सजी थी..
चारों ओर अंधेरा था!!
मर्मान्तक पीड़ा कहती थी...
जीना उसे भी खुशी से था!!
टूटी हड्डियों, घायल तन था...
भरे मन से विदा हुई जग से!!

चिता फिर खूब सजी थी...
चारों ओर अंधेरा था!!
न अपना कहीं कोई भी था...
अजनबियों का घेरा था!!
दरिंदगी की पराकाष्ठा थी...
और साजिशों का डेरा था!!
       
लगातार हो रही टीवी पर बहस,हीनता, विद्रोह और आंदोलनों से मन बड़ा खिन्न हो गया है। तब कहीं पीड़ा से उपजी कविता "चिता फिर खूब सजी"से पीड़ा छलकी है।एक घर जब किसी सदस्य को खो देता है तो उसकी यादें मन पर और गहरे तक जड़ें जमा लेती होंगी। उसका दर्द, पीड़ा और तड़प कभी चैन से जीने नहीं देती होगी। 
        
नीता झा

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