किस भूमि को काट रहे तुम.... नीता झा

किस भूमि को काट रहे तुम..
किस टुकड़े को बांट रहे हो।।
पुरखों की पैदाइश की भूमि..
नरम गदुलिए सी हरित भूमि।।
जहां सीना ताने चलते थे तुम..
निवाले प्यार के खाते थे तुम।।
गिरते पड़ते घुटनो से चलते..
सायकल से कार सीखे तुम।।
कितनी डोली, कितनी अर्थी..
कितनी खुशियां, कितने ग़म।।
इस भूमि में साझा सब बांटे..
सबको अपना पता बताते।।
नीम की छांव गिरी निमोली..
सूखे पत्तों में उगती हरियाली।।
क्या देख तुम समझ न पाते..
इस भूमि के मेहमान हो तुम।।
कितने आए कितने आएंगे..
जो पुरखों ने नाम बनाया।।
उसका क्या मोल लगाओगे..
जिस पीपल पर वर्षों तक।।
घर के सब जल चढ़ाते थे..
सारे कुटुंब की रक्षा खातिर।।
मिल बैठ बरूलीया बनाते थे..
होली दिवाली भरे आंगन में।।
बैठने लोग जगह न पाते थे..
उस वीरान होते खंडहर में।।
सुखी तुलसी, उजड़ी चौपाल..
टूटते मुंडेर की सुनी चुगैया।।
उन्हें बरसों से भूले बैठे हो..
याद बस धरती के टुकड़े की।।
उसके शीश महल, अटारी की..
पर याद नहीं बनाने वालों की।।
उसकी महिमा बढ़ाने वालों की..
क्या सोचा कभी उन उपवासों।।
मानता और वृहदअनुष्ठानों की..
जो किये जाते तुम सब के लिए।।
 बरगद से फैले कुटुंब के लिए..
 क्या अब भी याद तुम्हे? या भूले।।
 मिलों सफर तय कर आते अतिथि..
 उनकी अगवानी में सजती थाली।।
 बड़ी, बिजौरी,तरवां और तरकारी..
 बारम्बार मनुहार खीर मिठाई की।।
 क्या भूल रहे तुम सारा कुछ सच मे..
 या चश्मा चढ़ा लिया मोतियाबिंद का।।
 कितनी धमाचौकड़ी सब संग मचाई..
 वो दादा दादी के वकील बन इतराना।।
 अम्मा को अच्छी बहु बनने समझाना..
 अपने हिस्से की तुम मांग कर रहे थे।।
  कल छपा था सुबह के अखबार में..
  तुम बाहर हो कह वकील आया था।।
  मौके का बाकायदा मुवायना करने..
  खेत, घर, आंगन सारे नाप रहा था।।
 क्या तुम्हें नहीं बताया उस वकील ने..
 पिछली बरसात पूजा घर टूट गया था।।
 उसके ऊपर पुराना पीपल गिर गया था..
 साथ ही हुआ धराशाई तुलसी का चौरा।।
 जो अबतक डटा था तुलसी की आस में..
 पीछे आंगन का कुंआ सुख गया है अब।।
 यह पुश्तैनी महल जर्जर खंडहर हो गया..
 ठीक है, बड़ी हवेली के सदा बड़े चोचले।।
 मौत मिट्टी तो भारत के हिस्से रही पर..
 तुम तर्पण सात समंदर पार कर रहे हो।।
अपनी मुंडेर के सारे काले कौवे बिसराए..
बस भी करो न इतनी मिथ्या मन मे पालो।।
 व्यर्थ प्रलोभन में फंसकर धीरे - धीरे ..
  अपने संग न कुटुंब का सर्वनाश करो।।
 जीने दो कुछ उस महल के अपनो को..
 रोपने दो तुलसी, उजड़े चौरे को हरा करो।।
 आने दो चिड़ियों को दाना चुगने मुंडेर पर..
 पूजा घर को सुधरवा दिवाली की तैयारी करो।।
 आएंगे पूर्वज सारे अपने अपने घर देने आशीष..
 पितृपक्ष में उनकी अगवानी की तैयारी करवाओ।।
 हाथ उठा दे दो अधिकार सुने महल बसाने के..
 फिर कुटुम्बक की नई सुंदर कहानी गढ़ने के।।

"किस भूमि को काट रहे तुम " इस कविता में मैने उन लोगों से गुजारिश की है जो भारत मे शिक्षा, भरणपोषण पा कर विदेश में बस जाते हैं और न विदेश का मोह छोड़ पाते हैं न देस का इस का उनकी विरासत पर कितना गहरा असर होता है उसे वे नजरअंदाज कर देते हैं पुरखों की कमाई शोहरत को बिसरा कर केवल धन को ही सम्पत्ति समझ अधिकार जताते हैं। 
 नीता झा

टिप्पणियाँ

  1. नीता जबरदस्त लिखी हो, वाह,, मुझे तो पंकज उदास की चिठी आयी है आयी है याद आ गयी ,, बहुत मर्म भरा ।

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