क्या भला होगा मर्तबान की मछली से - नीता झा।

ये बात कभी मेरी समझ मे नहीं आई आखिर "क्या भला होगा मर्तबान की मछली से" क्यों लोग अपने कर्मो के परिष्कार के लिए कभी मछली कभी, तोता, कभी कछुआ  पालते हैं।  ताकि उनको चारा खिलाकर अपने ग्रहों की दशा बदल रहे हैं। इसी चक्कर मे गलतियों पे गलतियां करते रहते हैं। 
 चारा भी क्या वही छोटे - छोटे दाने! न जाने वो उन बेजुबानों को पसन्द भी होगा या सिर्फ भूख मिटाने का साधन।
 जब इंसान अपनी पूरी ज़िंदगी विविध रंगों, स्वाद, शौक के साथ जीना पसन्द करता है। स्वतंत्रता के लिए अपने प्राण तक त्याग देता है फिर स्वतंत्र परिंदों, मछलियों, कछुए और छोटे बड़े हर तरह के जीवों को क्यों कैद करता है। सालों तक एक ही पिंजरे में एक ही खूंटी में बांधे या एक ही मर्तबान में उन्हीं बेजान, नकली पत्तियों,फूलीं और कृत्रिम पत्थरों नकली लाइट बनावटी हवा, पानी के साथ जीने मजबूर करता है क्यों....
 कोई ख़ास वजह नहीं 
 सिर्फ अपने फायदे के लिए या कभी कभी सिर्फ आनन्द और मनोरंजन के लिए। कभी सोचा है वे क्या सोचते होंगे?

क्या भला होगा, मर्तबान की मछली से..

यंत्रवत चलते जीवन सी झूठी सांसें सारी।।

बिजली, दाना,पानी हवा भी तो नकली..

तो असली मिले क्यों वरदान किसीको।।

कोई तय कैसे करे उसे क्या खाना है..

कब सोना जगना और क्या करना है।।

वो भी क्यों कर भले की बात करेगी..

मिले भगवान तो उनसे क्या कहेगी।।

कुछ मिथ्या भरम के कारण  कैदी..

क्या शिकारी की शिफारिश करेगी।।

 सारे जीवन की कड़वाहट के बदले..
 
अपनी व्यथा कहेगी..... शायद नहीं।।

पिंजरे के तोते के रहती करीब मगर वो..

इशारे देख इंसानी भाषा न कह सकती।।

मौत आ जाए कभी समीप अगर तब भी..

चीख पुकार कुछ भी तो कर नहीं सकती।।

बस तड़पती, बलखाती मचलती जोरों से..

किसी बार बाला के मनभावन नृत्य जैसी।।
 
नीता झा

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