कवि मन जब बोलता है - नीता झा


एक कवि का मन कहां उसके वश में होता है वो तो वही लिखता है जो महसूस करता है। 

"दिल के दर्दों को चाहे सजाएं जितना
इक आह सी हर लफ्ज़ ओढ़े होती है"

जी हां जब कलम चली। उसे कहां परवाह दुनियावियों की हुई....
   वो तो धड़कती है। हर उस पल को जिसे जीया उसने।
 किसीने कहा औरत की लेखनी भी क्या दर्द की स्याही ही पिए होती है? 
हर शब्द नमकीन हर बात खंजर सी होती है।
तो जवाब भी पता होना ज़रूरी हुआ-
नमक में मिठास की तू आस न कर औरत तो बनी है अश्कों की खलिश को जज़्ब किए उसमे झूठी मिश्री की तू आस न कर ( यहां औरत कविता के लिए उपयोग हुआ है)

कवि मन जब बोलता है..
शब्दों की माला गूंथता है।।
मौन प्रकृति, झरते भाव..
रिसता अन्तस् का घाव है।।
शब्द - शब्द की बैसाखी..
हिमगिरि फिर चढ़ता है।।
कवि मन.................
कभी स्नान अग्निवर्षा से करता
कभी विकल भावावेश में बह।।
कभी पुष्पित, पल्लवित पावस से..
कभी तैरती व्यथा विछोह की।।
युद्ध टालने करती प्रयास कलम..
कहीं शब्दहीनता के चुभते दंश।।
कवि मन जब.....................
जीवन रस जैसा मिलता जाए..
काव्य रस वैसा ही बन पड़ता है।।
पथरीली राहों में दर्द चुभन के..
फूल देख मन मचल उठता है।।
कवि मन जब.....................
विरह वेदना चीरे गेहूं का सीना..
दीपक राग दिया जलाए वर्षा में।।
सुर, ताल, राग,छंद को वाणी दे..
अजर, अमर सदियों करता है।।
कवि मन जब...................

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