साल अजीब सा बीत गया - नीता झा
कैसे इसे मैं मन मे बसाऊँ।।
उथलपुथल है मस्तिष्क में..
क्या याद रखूं क्या बीसराउं।।
भीड़ भरी सड़कों की सोचूं..
या लॉक डाउन की बोझिल।।
वीरानी मैं याद रखूं ....
सुनी शादी, शांत बारातें ।।
या मरघट की कतारें याद रखूं...
साल अजीब सा बीत गया...
कैसे उसे मैं मन मे बसाऊँ।।
कितने अपने छुटे मझधार...
कितने सहमे फूल खिले।।
नन्ही पौध की अगवानी याद रखूं...
या विशाल दरख़्तों का ढहना याद रखूं।।
साल अजीब सा बीत गया...
कैसे उसे मैं मन मे बसाऊँ।।
कुछ मेरे होते थे नज़दीक...
जब भी मैं होती भयभीत।।
अब पड़े बिस्तर में बीमार...
कैसे उनसे दूरी मैं निभाऊं।।
साल अजीब सा बीत गया...
कैसे उसे मैं मन मे बसाऊँ।।
छद्दम वेश में आए साधन...
रोग - व्याध कैसे पहचानूं।।
मेरे अपने तकलीफों में डूबे...
अपनी व्यथा किसे सुनाऊं।।
साल अजीब सा बीत गया...
कैसे उसे मैं मन मे बसाऊँ।।
कोरोना होता स्वयं उपजा...
दर्द फिर कुछ कम ही होता।।
धूर्त पड़ोसी की घृणित चाल...
उसपे कभी क्या विश्वास करूँ।।
साल अजीब सा बीत गया...
कैसे उसे मैं मन मे बसाऊँ।।
फिर भी बड़ी उम्मीदों से...
स्वागत तुम्हारा नववर्ष करूँ।।
अपनी सारी ऊर्जा, निष्ठा से...
नवजीवन की मैं राह तकुं।।
नीता झा
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