कितना आसान था कहना नीता झा
भूल जाओ,रात गई बात गई
कितना मुश्किल है सम्हालना...
मन के उस कोने को समझाना
जो सतरंगी सपने सजाता आया...
बरसों बरस,झूमता रहा उत्सव से
गाता रहा गीत तुम्हारे प्यार के...
कैसे मनाऊं उस नादान को कहो
छला जाता रहा था हर उस पल...
जब दुआएं कर रही होती थी मैं
तुम्हारी लम्बी उम्र की और तभी...
किसी और के मोहपाश में तुम
खिलखिलाते गुनगुनाते होते थे...
कैसे सहन करूँ मैं तुम ही कहो
मांग में ही बसे रहे तुम सदा मेरी...
तुम पर मेरा कभी न कोई हक था
सब जान भी मैं क्यों इतनी बेबस...
क्या है जो रोक ही लेता है हर बार ।।
क्या बहुत से अपने रिश्तों का ख्याल...
या दुनियां के उठते अनगिनत सवाल।।
नहीं पता पर तुम नहीं समझोगे कभी...
जीते हुए पति की विधवा ख्वाहिशें।।
सिंगार करना सुहाता ही नहीं और...
अपनो से कह पाना आसान नही।।
इसी लिए फेंकी नहीं वो चूड़ियां ...
रखीं सन्दूक में छुपा ताले में बंद ।।
वो याद दिलाती थीं प्यार तुम्हारा,
वो याद दिलाती थीं समर्पण मेरा।।
वो सिर्फ झूठा भ्रम ही तो था मेरा...
सब छोड़ आई जिस साजन के लिए।।
मेरा वजूद कुछ नहीं उनकी नज़रों में...
मैं समाज में रहने का एंट्री कार्ड बस।।
सोचा जब गलती कहाँ मुझसे हो गई...
सारे जतन कर भी जिंदगी बेरंग हुई।।
बात बस इतनी ही मुझे समझ मे आई...
मैं अमृत कलश उन्हें चाह मय की थी।।
पूजा की चूड़ियां,बिछुए,मंगलसूत्र रख...
नकली श्रंगार लाद लिए तब खुद पर।।
नीता झा
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