इंतज़ार करती है औरत
चाहे घर आते ही सताए
पर देहरी पे आंख लगाए
देखती रहती है औरत
क्यों इंतज़ार करती है?
क्या अच्छा लगता है उसे
घण्टों मेहनत कर बनाए
सुस्वादु खाने में कमी सुनना
पूरे परिवार को सम्हाल भी
कोई काम ढ़ंग से नही करती,
सभी उत्सवों के हिसाब से सजना,
फिर पति का किसी और को ताकना
अपने हिस्से की खुशियां
किसी और कि होते देखना
मर्यादा का पर्याय बनाए घूंघट से
पति की नजरों की बदमाशियां देखना,
और भी बहुत कुछ घिनौनी मजबूरियां
क्यों सहती है औरत खुद नही जानती
जैसे सिर्फ वही गर्भ में
बच्चे को सींचती आई सदियों से
और ता उम्र सम्हालती रही जतन से
और जरा सी नाकामयाबी बच्चे की
सबका कोपभाजन उसे ही बनाती
क्यों नही कहती की क्या है वो
क्यों नही लपक लेती
उन तमाम उपलब्धियों को
जो उसके आनन्द की पर्याय हैं
क्यों वो बेसुरा ही सही गाती नही
मुक्त कंठ से,थिरकती नही उन्मुक्त,
हंसती नही ठहाके लगा कर
और जीती नही खुद को खुश रखने
क्या मिलता है दूसरों को सब देकर
अपनी ऊर्जा से खुद को मिटा कर
कुछ नही निसन्देह कुछ भी नही
सिवाय लोगों के इस विचार के
कि ये तुम्हारा काम है
तुम्हे हम सब देते हैं खाना, कपड़ा,नाम
गोत्र,सारी पहचान और तुम दोगी बदले में
अपना सारा कुछ यहां तक
कि अपने आप को भी
ये सौदा है स्त्री से किया
पुरुष का सौदा
जिसे वह निभाती है
ताउम्र खुद को दिलासे देती
अपनी कमजोरियों को
मासूमियत का जामा पहनाती
तभी तो सुरक्षा के नाम पिता से पुत्र तक
गर्भ से कब्र तक छली जाती है
जरूरत के आधार पर
अपनाई और ठुकराई जाती है
नीता झा
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