मुझसे चाहते हो मिलना.... नीता झा

पूरे तीस साल बाद शांतनु छत्तीसगढ़ लौट रहा था। जब कॉलेज की पढ़ाई के लिए बैंगलोर के लिए निकला था बड़ा अटपटा लग रहा था। नए लोग नई बोली, भाषा शुरू - शुरू में तो मन बहुत घबराता था। फिर वह दादू के बताए नुस्खे अपना कर चिट्टी लिखने लगता अम्मा - पापा फोन लगाया करते थे तब सबसे बात हो जाती थी। कॉलेज के फोन में लाइन लगाकर बात करना अजीब लगता था धक्का मुक्की, छुटपुट अपशब्द और बहुत ज्यादा शोर - शराबे में प्रायः वो काम की बात भूल जाता था। घर मे सभी लोग बारी - बारी से लगभग एक सी ही बात करते ऐसे में काम की बातें प्रायः हो ही नहीं पाती थी। जब पहली बार घर से कॉल आया था सिवाय रोने के न वो ही कुछ बोल पाया था न दादी, अम्मा, चाची, दीदी लोग तभी से वह सबको अलग अलग चिट्ठियां लिखकर एक ही लिफाफे में भेजा करता था जिसे तनु ही प्रायः सबको दिया करती थी। तनु उनकी पड़ोसन स्वामी अंकल की बेटी चुलबुली, चंचल, घुंघराले बालों वाली तनु की सलोनी सूरत उसकी आँखों के आगे तैर गई।
शांतनु और तनु का जन्म भी उन्ही सरकारी क्वाटर में हुआ था जहां पिछले चार सालों से स्वामी अंकल और पापा नई पोस्टिंग में आए थे दोनों की नई - नई शादी हुई थी अगल - बगल में रहने से सभी मे बड़ी आत्मीयता थी। दोनों बच्चे भी चार - छः महीने के अंतर में हुए तो उनके नाम भी मिलते जुलते रखे गए शांतनु और तनुश्री।
शांतनु का तो पूरा परिवार ही साथ रहता था। उस छोटे से क्वाटर में लेकिन स्वामी अंकल के यहां बस वो ही तीन लोग तो प्रायः रोज स्वामी आंटी तनु के साथ शांतनु को भी पढ़ाया करती थीं। सच पूछा जाए तो शांतनु की फर्राटेदार इंग्लिश का श्रेय आंटी को ही जाता है। साथ पढ़ते, साथ झगड़ते, साथ खेलते धीरे - धीरे दोनों बढ़ने लगे। बढ़ती उम्र का संकोच फिर सब्जेक्ट भी अलग अलग होने पर दोनों का मिलना भी कुछ कम हो गया था।
आगे की पढ़ाई के लिए शांतनु को हॉस्टल भेज दिया गया दोनों अपनी अपनी पढ़ाई में व्यस्त हो गए वह लगभग रोज ही शांतनु के घर जाती थी।
दादा जी के स्वर्गवास के बाद शांतनु के मुन्ना चाचू लोग अलग हो गए दादी बहुत उदास रहने लगीं तो तनु उनको बार - बार शांतनु की चिट्ठियां पढ़कर सुनाया करती थी। और उनके शब्दों में जवाब भी लिखा करती थी। सच पुछा जाए तो शांतनु को भी दादी के इस पत्र की प्रतीक्षा रहती और उत्तर भी लिखने की जल्दबाजी चिट्ठी तो प्रायः वो उसी दिन लिख लेता लेकिन पोस्ट दो दिन के बाद ही करता था। दोनों जानते थे यह सार्वजनिक पत्र है तो शब्दों का चयन भी सोच समझ कर ही होता और जहां बहुत ज्यादा समझ हो वहां प्यार नहीं पनप सकता बस अंदर ही अंदर जड़ें फैलती रहती हैं। यही इन दोनों के साथ भी हुआ।
उसे अच्छी तरह याद है जब पापा का ट्रांसफर हुआ दोनों परिवार दुखी हुए पर प्रमोशन भी था। तो जाना तो था ही बार बार मिलने के भावुक वादों के साथ पापा लोग चले गए इस समय वह परीक्षा के कारण नहीं जा पाया था। अब दादी के नाम की चिट्ठियों में पनपते मूक प्रेम की जगह मोबाइल ने लेली थी। तो पत्रों का आदान - प्रदान पहले ही कम हो गया था अब तो बिल्कुल भी बंद ही हो गया।
समय बड़ा बलवान होता है। सारा कुछ विस्मृत कर देता है फिर यह तो अव्यक्त भावना थी। पढ़ाई के बाद शांतनु की बंगलोर में ही नोकरी लग गई फिर शादी भी हो गई तनु की भी शादी हो गई अम्मा - पापा गए थे उसे भी फोन किया था पर वो नहीं गया मन नहीं किया अम्मा बता रही थीं। अंकल - आंटी उसे पूछ रहे थे।
न चाहते हुए भी वह पूछ बैठा - "और तनु ?
अम्मा ने कुछ बुझी आवाज़ में कहा - "वो तुमसे बहुत नाराज है....
मुझसे लिपट कर बहुत रोइ कहा-" मुझे लगा था शांतनु जरूर आएगा"
मन भारी हो गया पर बोला कुछ नहीं अम्मा बोलीं "हमारी तनु महारानी लग रही थी। जेवर गहनों से लाद दिया दोनों परिवारों ने....
और भी बहुत कुछ बताती रहीं वह अनमना सा हां - हूं करता रहा उर्वी को अम्मा का फोन पकड़ा कर बाहर आ गया था।
कई साल बीत गए अचानक एक दिन वैसा ही पत्र आया तनु के हाथों की लिखावट पहचानते देर न लगी जल्दी से लिफाफा खोला अंदर एक कार्ड था।
इलेवन्थ बैच के सारे लोग मिल रहे थे।
साथ ही दादी की चिट्ठी की तरह एक अपनी सी चिट्ठी मुड़ी रखी थी...
अलसुबह फिर आ जाना।।
ऊंची पहाड़ियों के पीछे..
समंदर के खारे किनारे।।
हाँ उस खारे समंदर के..
बून्द बून्द जो भरा है।।
मीठी नदियों के जल से..
मैं फिर मिलूंगी वहीं तुमसे।।
इतने सालों बाद मिलो..
कुछ न कहना वादा करो।।
वजूद की विशालता पे..
न अन्तस् के खारेपन पे।।
इतने सालों बाद मिलो..
तो सहज ही मिलना।।
किसी तृप्त पथिक से..
किसी मौन तपस्वी से।।
नीता झा
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