बन्द पलकों में आते हो तुम - नीता झा
बन्द पलकों में आते हो तुम...
अनगिनत लम्हों की यादें बन।।
मुझको मुझसे मिलाते हुए से...
सतरंगी अहसासों को लेकर।।
ठहर, ठिठक कर थम जाती...
मुझमें मेरी सारी परेशानी।।
तुम्हे देख मचल उठती फिर...
मेरे मन की निश्छल तरुणाई।।
भागमभाग में थकी हुई फिर...
मीठे अहसासों में खो जाती हूं।।
तुम दोनों से मिलकर मैं फिर...
नन्ही सी नीता हो जाती हूँ।।
बिसरा बालों की सफेदी...
उम्र को भी भूल मैं जाती हूँ।।
बचपन के सुखद पलों में फिर...
बेझिझक विचरने लगती हूं।।
गुनगुनाती सुबह, इठलाता दिन...
और कहानी से बुनी रातें ओढ़।।
बस्तर की सुरम्यता में विलीन फिर...
अम्मा की गोद मे सो जाती हूँ।।
महसूस करती दोनों के प्यार को...
धान की अधपकी बालियों को।।
गांव की निर्मल ठंडी हवा को...
अपने अपनो के निश्छल प्रेम को।।
विचरण करती चितरकोट घूमर में...
कुटुमसर की डरावनी गुफा में।।
कस कर तुमलोगों के हाथ थामे...
उन्मुक्त विचरती शहीद पार्क में।।
जब अचानक पाती हूँ खुद को...
केशकाल की तलहटी से गुजरती।।
उमस और भीड़ से घिरी हुई सी...
सुनाई पड़ती है तब कानों में।।
शहरी सुबह की चीखती पुकार...
कचरे की जबरदस्त गुहार।।
छीन लेती है मुझसे फिर मुझे...
तुम दोनों विदा हो जाते हो फिर।।
पलकों से गर्म खारे आंसू बनकर...
पलकों से गर्म खारे आंसू बनकर।।
नीता झा
Bahut sundar 👌👌
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