बुढ़ापा। नीता झा
कब टूटी और बिखरी, ढेर हुई!!
पता कहां चल पाया काया को..
काल की गति बड़ी ही मंथर थी!!
बलशाली, विजयी, महाप्रतापी..
कई दुनियां को बर्बाद किये थे!!
सभी दिशा में बादल बन छाए..
जीत के धोखे में सारे जग को!!
तुच्छ जान अकड़े बड़े फिरते..
कुछ ने अपनी अच्छी सोच से!!
इस दुनियां को स्वर्ग बनाया..
सारे जन मानस की खातिर!!
इस जग को सुंदर सजाया है..
बरसों बरस जीवन के मेले में!!
सोचा कब था शांत चित्त रह..
दुनियां चन्द दिनों का खेला है!!
छोड़ यहीं सारा कुछ इक दिन..
सबको इस दुनियां से जाना है!!
जब आता दुष्कर बुढापा तन में..
मन वैरागी त्यागने चोला आतुर!!
अपनी सुध तब लेकर अंत समय..
भगवान भक्ति में रम जाता है!!
नीता झा
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