महिला दिवस - नीता झा।

अनदेखे, अनसुलझे मसले..

अलग अभी भी कर जाते हैं।।

पूर्वाग्रह की तलवार के चलते..

सारे अपने धीरे से कट जाते हैं।।

तुम निपट अकेली रह जाती हो..

फिर बौराई, घबराई उदास बहुत।।

अपनी परछांई से भिड़ जाती हो..

उठो निकलो अपने अवसादों से।।

खुद को ही तुम पहले सम्मान दो..

अपनी गरिमा जो बचपन से जोड़ी।।

उनकी तो पहले खुद ही कद्र करो..

अंतर्मन के मिथ्याभिमान में तुम।।

यूँ ही ना खुद को ही कैद करो..

बढ़ो चलो उन राहों पर तुम भी।।

जो स्त्री की गरिमा द्विगुणित करे..

बन सकती हो तुम भी गार्गी, उषा।।

अपनी विद्या को कुछ श्रम तो दे..

बांट सको तो बांटो अपनी विद्या।।

भारत माँ की सच्ची बेटी तो बनो..

तुम उर्वरा, तुम ओजस्विनी तुम ही।।

माँ भगवती की ज्योति पुंज हो..

चलो तप कर खुद को कुंदन करो।।

    नीता झा

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