जीवित तेरी काया लचीली – नीता झा
हरि - भरी मौसमों की सखी..
नन्ही-नन्ही लतिकाओं वाली।।
कहीं कोमल तंतुओं से थामें..
कहीं शाल्मली सीधी सरल।।
बरगद की विशाल शाखाएं..
कहीं बांस, बेत की लचक।।
कहीं चंदन की मीठी महक..
कहीं भूख मिटाती पालक।।
इंद्रधनुषी रंगों से लदी-झुकी..
कहीं बन गई वन की शोभा।।
पीली केसरी अग्निशिखा..
मूल रूप में बसती लकड़ी।।
खाल की चादर ओढ़े टहनी..
जड़ें भूमिगत नींव का पत्थर।।
सुख गई, कटी बिखर गई..
और बेशकीमती मूर्ति बनगई।।
लकड़ी तु ही चढ़ी मंदिरों में..
घर बाहर हर जगह सज गई।।
पर लगती सबसे प्यारी जब..
जीवित तेरी काया लचकती।।
नीता झा
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