शिक्षा, शिक्षक और हम - नीता झा



 मात पिता, गुरु को  वंदन..
 जिनसे शिक्षा मिली प्रथम।।
 अस्तित्व में आने से पहले..
 अपार स्नेह है मिला प्रथम।।
   जब भी गुरु की महिमा होती है। सर्वप्रथम अपने अम्मा-पिताजी और बड़े भाइयों का ध्यान आता है। उनसे वो भी सीखा जो प्रत्यक्ष सिखाया बहुत सी महत्वपूर्ण सीख ऐसी भी मिली जो अनुसरण कर मैने स्वयं उनसे सीखा।
   फिर जब स्कूल गई अलग - अलग शिक्षक - शिक्षिकाओं से वर्षों विभिन्न विषयों का ज्ञान मिला सबकी अलग - पहचान,सबकी अलग सोच, पढ़ाने की भिन्नताएं फिर बदलती कक्षाओं में मिलते नए - पुराने सहपाठियों के साथ पढ़ने के अनुभव भी तो कुछ कुछ अलग ही होते हैं। 
   मैने महसूस किया है। शिक्षा की उपयोगिता इंसान का निर्धारण करती है और इंसान की उपयोगिता शिक्षा निर्धारित करती है।
   आपने क्या, कहां और कितना सीखा ये महत्वपूर्ण तो है किंतु अपने अर्जित ज्ञान से आपने क्या किया ज्यादा महत्वपूर्ण है। 
   शिक्षा तो वही उत्तम है जो शालीन बनाए, विवेकी बनाए, समाज, देश, दुनिया के लिए कुछ अच्छा करने प्रेरित करे। विनाश के लिए ग्रहण की गई शिक्षा से तो अशिक्षित होना सही है। 
   जितने आधुनिक युग का प्रभाव बढ़ता जा रहा है उतना ही अपनत्व का भाव घटता जा रहा है। इसके लिए शिक्षा पद्धति के साथ साथ गुरु, अभिभावकों और बाजारवाद काफी हद तक जिम्मेदार हैं। हर दो साल में स्कूल अपनी किताब, कोर्स बदल देते हैं जिससे एक ही घर के दो बच्चे अलग अलग शिक्षा अर्जित करते हैं। कमोबेश पाठ्यक्रम वही रहता है। बस स्कूल प्रबंधन अपनी पाठ्यपुस्तक की प्रतिवर्ष बिक्री बढ़ाने के लिए ऐसे फेर बदल करते हैं। 
   इसके कई नुकसान होते हैं। जिसका दुष्प्रभाव सभी को झेलना पड़ता है 
   1 - हर बार नई किताबें खरीदने का आर्थिक बोझ
   2 - पुरानी किताबों की जो लगभग अच्छी हालत में होती है उनकी उपयोग हीनता।
   3 - प्रायः घर के बड़े भाई बहन अपने से छोटे भाई बहनों को पढ़ाना पसंद करते हैं इससे उनके बीच रिश्तों का सम्मान भी बढ़ता है और बड़ों में छोटों के प्रति वात्सल्य की भावना और छोटों में बड़ों के प्रति आदर भाव पनपता है।
   साथ ही पढ़ाने से बड़े बच्चों को भी अच्छे से याद हो जाता है। जब कोर्स बार - बार बदलता जाता है तो वो स्वयं की पढ़ाई के साथ नया पढ़कर छोटे भाई बहन को पढ़ाने में हिचकिचाते हैं। उतना समय भी नहीं नहीं होता कि अपनी पढ़ाई के साथ वो अलग से समय निकालकर छोटे भाई बहनों को भी पढ़ाए। जिसका सीधा असर उनके मध्य विकसित हो रहे जीवन पर्यन्त के मैत्रीभाव पर पड़ता है।
   महंगाई की मार सह रहे अभिभावकों द्वारा किये गए इस व्यवस्था पर रोष से नन्हे बच्चों के मन में जो स्कूल और गुरुजनों पर आस्था होनी चाहिए उसमे गिरावट आने लगती है। वर्षों से स्कूली पढ़ाई से दूर हो चुके अभिभावकों के लिए अपने कार्यक्षेत्र की चुनोतियों के साथ समय निकालकर अपने बच्चों को पढ़ाना उनकी अनिवार्यता होती है। बार बार के बदलते कोर्स से उन्हें भी असुविधा होती है ऐसे में ट्यूशन ही उनके लिए इकलौता सहारा होता है। जिसके लिए उन्हें फिर से मुहमांगी फीस देनी होती है। 
   कौन कितनी शिक्षा देता है और कौन कितनी शिक्षा ग्रहण करता है ये तो पढ़ने- पढ़ाने वाले पर ही निर्भर करता है, लेकिन ऐसी विषम परिस्थिति में शिक्षक को गुरु होने में और छात्र को शिष्य बनने में बहुत सी भावनात्मक सीढियां चढ़नी होती है। ऐसे गुरु - शिष्य भी हैं जो आज भी सनातनी परम्परा को यथासम्भव जीवित रखे हुए हैं। जी छात्रों के जीवन मे आई परेशानी में जरूरत पड़ने पर माता पिता के दाँत कंधे से कंधा मिलाकर चलते हैं। 
   नीता झा

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