अहसास - नीता झा

कर रखे हैं कई ज़ख्म सरे आम उसने..
के ताकीद है स्याही नहीं रक्त लिखेगी।।

खुलके हंस भी तो नहीं पाई संग उनके..
डबडबाई आंखों से किस्से तमाम उड़े।।

कर रखे हैं बीच कई अहसान उसने..
न मालूम मोल किसकी क्या लगाए।।

डरी सी जागती रही शब भर तन्हाई..
सहर होते ही निकली ग़रीब खाने से।।

के किस्से ही तो थे दर ब दर फिरते..
वो तो सात पर्दों में थी महफ़ूज़ बड़ी।।

कत्ल हो ही गई आख़िर चाहतें सारी..
नियत की गुस्ताखियां खूनी थी बड़ी।।

नीता झा

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