स्त्री विमर्श - नीता झा।




तुम कोई किताब नहीं..
के पढ़ लूं हर्फ़ दर हर्फ़।।
तुम कोई आदत भी नहीं..
के दोहराऊं हर एकपल।।
तुम धड़कन भी तो नहीं..
जिसे प्राण ही कह पाऊं।।
तुम वो छवि भी तो नहीं..
जो सजता मेरे वजूद में।।
तुम मीत भी तो नहीं मेरे..
जो खड़ा साथ बेखौफ।।
फिर तुम क्या हो जानते हो..
एक अचंभित स्तब्ध पुरुष।।
जो देखना चाहता है मुझे..
नए दृष्टिकोण से नए ढंग से।।
पर साहस नहीं नज़र भर देखे..
खुलकर अपने विचार रखे।।
डरता है अनन्तकाल के दर्प से..
अपने पोषित एकछत्र अधिकार से।।
हां ये तुम्हारा कौतूहल मात्र है..
स्त्री के बढ़ते कुशल व्यवहार पर।।
नीता झा

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