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शांत सरोवर फिर हौले हौले.... नीता झा

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शांत सरोवर फिर हौले हौले...  बर्फ की चादर छोड़ने लगे हैं।। धरती भी अलसाई अकुलाई... सुवासित पवन संग खेल रही।। नन्ही, नन्हीं सरसों लचकती... पीताम्बरीओढ़े ठुमक रही है।। चोंच पोंछती नन्ही गौरैया भी... बीज  झरने की बाट जोहती।। फुदक-फुदक कर नाच रही है... आई वासन्तिक मधुर वेला में।। सबके मन उमंग घोल रही है... दुल्हन ओसारे की धूप में बैठी।। साजन का रास्ता ताक रही है... झरती पत्तियां गुलमोहर की।। आती कलियों को बिठा रही... माघ महीने की रसवंती छटा।। दोपहरी मद्धम  सुलग सुलग... जेठ आगम की बात कह रही।। रसोई भी सजने संवरने लगी... खेतों से हरियाली संजोने माँ।। बरनियों में जतन से जमा रही... नए परिधानों से सज संवर।। वन उपवन फिर झूम रहे हैं... बौराए आम लखदख झूमते।। अपनी मादकता बिखेर रहे ... शांत सरोवर फिर हौले हौले।। बर्फ की चादर छोड़ने लगे हैं... बर्फ की चादर ओढ़ने लगे हैं।। नीता झा

बारिश वाली शाम - नीता झा

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ये  वैसी ही बारिश वाली शाम  थी.. जिसे देख मन में रोमांच जगा था।। जीवनी शक्ति देती निर्मल प्राणवायु.. चारों ओर छाई हरियाली की चादर।। उसपर जहां-तहां से निकलते झरने.. मानो प्रकृति के हीरे जड़े सुंदर गहने।। सीटी बजाती नम हवा जब चलती.. लगता स्वर्ग की अप्सरा नाच रही।। जी चाहता यहीं के होकर रह जाएं.. स्निग्ध हवा में फैली मोहक सुगन्ध।। हमको अपने आगोश में भर रही.. बड़ा मनोरम दृश्य हमारे सामने था।। और हम आए भी यही सब देखने.. मंत्रमुग्ध हो प्रकृति में खो गए थे।। तभी लोग हरकत में आए झटपट.. बस्ती की ओर जाने लगे अचानक।। हमे समझाइश दी साथ चलने कहा.. पर हम बातों पे ध्यान न दे डटे रहे।। मौसम की सारी कलाबाजियां देख.. ढेरों फोटो, वीडियो लिए जा रहे थे।। काली घटाएं अपने चरम पर छाई.. दिन में ही रात सी स्याही होने लगी।। अब फाहे सी बारिश तेज़ हो गई.. मनोरम, सुंदर रा हें दुर्गम होने लगीं।। सारी घाटी अचानक डरावनी हुई.. पता ही नहीं चला हम कहां खड़े।। भीगी नम हवा बर्फ से कम न थीं.. पांवों में भारी मजबूत जीवट जूते।। कीचड़ को थाम लेने को आतुर थे.. एक पग बढ़ाना लगता कठिन था।। तिसपर हाथ को हाथ न सूझे ऐ...
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🙏🙏🙏शत शत नमन लता जी सिर्फ एक गायिका ही नहीं संतुलित व्यक्तित्व की स्वामिनी थीं।  सभी महिलाओं के लिए प्रेरणास्रोत थीं। मुंबई में रहकर भी संगीत साधना में इतनी तल्लीन कि वहां की चकाचौध, अंगप्रदर्शन जैसे आकर्षण से हमेशा स्वयं को दूर रखकर अपने लक्ष्य के चर्मोत्कर्ष को प्राप्त किया.... ठीक किसी तपस्विनी की तरह.... उनके जीवन काल से यही शिक्षा मिलती है कि सफलता के शिखर की गरीमा किस तरह हमेशा बनाए रख सकते हैं।   जीत के शिखर पर स्वयं को स्थिर रखना जीतने से ज्यादा दुष्कर होता है। उन्होंने यह कर दिखाया ऐसी जीवट स्त्रीशक्ति को विनम्र श्रद्धांजलि 🕉️💐

"मैं" की यात्रा - नीता झा

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जन्ममरण के खेल खेलते.. पहुंचा यह चोला इह लोक।। मूढ़मति कुछ समझ न पाया.. ऊंची नीची सीढ़ियां चहुं ओर।। पशोपेश में उलझ बढ़ता गया.. कभी चढ़ता प्रगतिपथ तो।। उतरे आध्यात्मिक रसातल को.. चढ़ता कर्तव्य की सीढियां वो।। कहीं दुष्कर्मो का अंधा कुंआ.. कहीं शोहरत की ताल तलैया।। कहीं गुमनामी का था सन्नाटा.. कहीं झूठे नेह का छल-छलावा।। हर राह चलकर देख लिया तो.. मन निराश और निढाल हुआ।। रोगी तन मन की आशाएं बिखरी सारी माया से जीवन उचाट हुआ।। तब किरण इक आशा की झलकी जिसने जीवन रुख मोड़ दिया था।। जिस अन्नमय जीवन की आसक्ति विमुख आनन्दमय जीवन किये थी।। किए धारणा शांति की मन में.. जब पंचतत्व स्वयं में डूब गया।। सारी सीमाएं सिमट गईं फिर.. अंतर्मन तब मुखरित हो गया।। मौन हुआ मन का कोलाहल.. मोक्षद्वार के समक्ष पड़ा था।। "मैं" तब भवसागर के पार हुआ.. "मैं"तब भवसागर से पार हुआ।। नीता झा