"मैं" की यात्रा - नीता झा

जन्ममरण के खेल खेलते..
पहुंचा यह चोला इह लोक।।

मूढ़मति कुछ समझ न पाया..
ऊंची नीची सीढ़ियां चहुं ओर।।

पशोपेश में उलझ बढ़ता गया..
कभी चढ़ता प्रगतिपथ तो।।

उतरे आध्यात्मिक रसातल को..
चढ़ता कर्तव्य की सीढियां वो।।

कहीं दुष्कर्मो का अंधा कुंआ..
कहीं शोहरत की ताल तलैया।।

कहीं गुमनामी का था सन्नाटा..
कहीं झूठे नेह का छल-छलावा।।

हर राह चलकर देख लिया तो..
मन निराश और निढाल हुआ।।

रोगी तन मन की आशाएं बिखरी
सारी माया से जीवन उचाट हुआ।।

तब किरण इक आशा की झलकी
जिसने जीवन रुख मोड़ दिया था।।

जिस अन्नमय जीवन की आसक्ति
विमुख आनन्दमय जीवन किये थी।।

किए धारणा शांति की मन में..
जब पंचतत्व स्वयं में डूब गया।।

सारी सीमाएं सिमट गईं फिर..
अंतर्मन तब मुखरित हो गया।।

मौन हुआ मन का कोलाहल..
मोक्षद्वार के समक्ष पड़ा था।।

"मैं" तब भवसागर के पार हुआ..
"मैं"तब भवसागर से पार हुआ।।

नीता झा

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