मन नहीं था जाने का पर - नीता झा

मन नहीं था जाने का पर..
सारा घर भेजने आतुर था।।
क्या कहती, क्या छुपाती..
बस जी भर के रोना था।।
अपना बिस्तर बरसों का..
रजाई से मानो जकड़े था।।
उठने की हर कोशिश में..
आंसुओं का सैलाब था।।
खूब सारे सामानों से होता..
किस्सों का इक पर्चा होता।।
कमरे पर ठुमक ठुमक कर..
चलता बचपन, यौवन था।।
अलमारी के सारे सामानों में..
यादों का गहरा पहरा लगा था।।
हर कपड़े से जुड़ी कहानी और..
कहानी के किरदार की कहानी।।
पुराना जीवन, पुरानी सखियां..
पुराना सारा ही संसार सजा था।।
पुराने सारे बीते अपने से वे पल..
रोक रहे जाने से अल्हड़ सारेपल।।
मन मेघ बरसने को आतुर हुआ..
बाहर बिदाई का माहौल सजा था।।
बजने लगी दरवाजे की कुंडी..
ये नए जीवन का आगाज़ था।।
सुर्ख लाल जोड़ा, गहनों संग..
रूप दमकाता सिंदूरी चेहरा।।
ढंकता सारे भावों को घूंघट..
बांध रुदन का फूट पड़ा था।।
चंद पलों में अबअजीब सन्नाटा..
बेटी संग उत्सवी माहौल का।।
 ठहरा बस जो माँ के आंचल..
काजल संग बहता आंसू था।।
बदल गया पता ठिकाना सारा..
आँचल भी तो बदल गया था।।
ओली थामती सासु माँ और..
आँचल उन्होंने विश्वास धरा।।
लगा सीने से वो तृप्त हो गई..
बेटी बिदा की माँ जानती थी।।
सूखे आंसु की कजरारी रेखा..
अपने संसार की यही है शोभा।।
बदलते युग की बदलती तस्वीर..
स्त्रियों की उज्वल होती तकदीर।।
बनने लगी है अब सुंदर श्रंखला..
मित्रवत समधिनो की सजगता।।
नए कुछ चलन अब चला रही थीं..
सारे रिश्तों की माला पिरो रही थीं।।
नीता झा

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