चलो उठो - नीता झा।

कभी न कभी हर किसी को जीवन मे ऐसे अप्रिय समय का सामना करना ही पड़ता है जब घोर निराशा हावी हो जाती है। ऐसा लगने लगता है। मानो जीवन ही व्यर्थ हो गया जीने की लालसा नहीं रहती है......
इस पीड़ा को लेकर सबकि अपनी सोच होती है। सबका अपना दृष्टिकोण.....
किसी के लिए जो परिस्थिति आनंददायक होती है किसीकी नज़र में वही आत्महत्या की स्थिति....
 अतः जब परिस्थितियां मूल कारण नहीं तो फिर क्या है ?जो निराशा का कारण बनता है....
     वो है हमारी परिस्थितियों को लेकर की गई धारणा। बहुत से लोग परीक्षा में असफल हो कर जान देने की बात करते हैं। कुछ लोग बिना डिग्रियों की परवाह किए अपनी ज्ञानपिपासा के चलते मजे से पढ़ते हैं। कभी विद्या को विद्या समझकर सीखें तो सफलता असफलता के बंधन से मुक्त होकर एकाग्रता से पढ़ेंगे तभी स्वतः ही सब याद होता जाएगा निराश लोगों के भी अपने बहुत सारे तर्क होते हैं। कुछ सही भी कुछ गलत भी जो आपने तैयारी की उसमे कमी रह गई होगी लेकिन बहुत सारा आपने  पढा हुआ है। फिर डर काहेका पहले से और ज्यादा मन लगाकर पढ़ेंगे निश्चित सफलता मिलेगी। 
 ऐसे ही प्रेम भी बहुत लोगों के लिए मरणासन रोग बन जाता है। कहीं ये प्रेम न होकर ज़िद तो नहीं क्योंकि जो सारा कुछ तजने बाध्य करे क्या वो प्रेम है?
   प्रेम तो मनुष्य को पूरा कर देता है। सच्चा प्रेम तो मौत के मुह से निकाल लाता है। जो जीवन को ही खत्म करने को आमादा हो वो भला प्रेम कैसे हो सकता है। उस कथित प्रेम के छलावे में अपने साथ बहुत सारे अपनो को दुखी तो नहीं कर रहे हैं।  एक बार भी ईमानदारी से उन खूबसूरत आत्मीय रिश्तों की याद कीजिए जिन्हें आपकी हमेशा परवाह होती है। जब आप खुद से बेखबर होते हैं तब भी और जब आप दुखी होते हैं। तब भी बहुत सी आंखों से नींद उड़ी होती है। एक बार बस एक बार उनकी नजर से खुद को देखिए खुद पर विश्वास करने लगेंगे और सारी बड़ी से बड़ी मुश्किलें भूल कर उनकी खातिर जीने का मन करेगा.....
घोर निराशा जब छाए..
खुशियां भी मातम मनाए!!
सारी राहें बन्द हो जाएं..
घुटन अपने चरम पर आए!!

रुको मीत जरा धीरज धर कर..
खुद को देखो तुम पलटकर!!
समझो तुम काया को रुक कर..
डरो नहीं मन भीतर झांक कर!!

ये तुम्हारा ही तो घर है सलोना..
पंचतत्व निर्मित मंदिर सुहाना!!
जिसमे समाया दिव्य खजाना..
इस सच्चे धन को न बिसराना!!

चलो उठो हाथ थामें चलते हैं..
जीवन यात्रा में आगे बढ़ते हैं!!
हम सारी बाधाओं से लड़ते हैं..
रुके कभी ना ही पीछे मुड़ते हैं!!

कितनी सांसों का यह तन पाया..
यह कभी क्या कोई बता पाया!!
काज बहुत क्यों समय गंवाया..
फर्ज का लेखा कहां भर पाया!!

उम्मीदों के दिये से रोशन तन..
कर्तव्यों से क्यों भागे ये मन!!
अपने अपनो के तुम हो धन..
इसे सम्हालो तो मिलेगा चैन!!

अपने नजरिये पर गौर करो..
बहुत सी खुशियां है गर्व करो!!
कुछ अनबन हो तो ठीक करो..
पर उनकी खातिर न रोया करो!!

देखो तो दर्पण निहार रहा है..
तुम्हे सजाने पुकार रहा है!!
उन दो जोड़ी आंखों में नीर है..
तुम्हारे दुख से होती पीर है!!

उठो उन रिश्तों की गठरी खोलो..
यदि रूठ गए तो बढ़कर मना लो!!
कुछ गलतियों हों सुधार भी लो..
खुशियों की बगिया सजा भी लो!!

कुछ इतना बिगड़ा के सम्हल न पाए..
उसपर क्यों अपना जीवन है लगाए!!
दुख देते मन तोड़े सदा ये दर्द पराए..
कठपुतली क्यों मन अपना बनाए!!
नीता झा

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