लेखनी जब रो रही हो (कविता) - नीता झा

लेखनी जब रो रही हो (कविता) - नीता झा लेखनी जब रो रही हो अनमनी सी हो रही हो औचित्यहीन नियम जब स्याही खून सी हो रही हो कह लेने दो कवि को रोने दो तुम कलम को अपने दुख लिखने दो उसके ग़मो को रीतने दो यदि रोक लिए तुमने रोते, उफनते उदगार तो शायद आ जाए बाढ़ हुई यदि हालत इससे बदतर तो कलम की वेदना मुरझाए और विभिन्न रसों से पगी सनी कृत्रिमता की दीवानी हो जाए कविता के आभामंडल को उसकी सुंदर रस धारा को आहत हो तो रो लेने दो मुक्त करो कविता को तरह तरह के वचनों से उसे अपने मनोभाव से हौले हौले बहते रहने दो बनादो रास्ते पृथक चाहे पर उसे अपनी मनोदशा खुले आम कह लेने दो - नीता झा