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दिसंबर, 2019 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

लेखनी जब रो रही हो (कविता) - नीता झा

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लेखनी जब रो रही हो (कविता) - नीता झा लेखनी जब रो रही हो अनमनी सी हो रही हो औचित्यहीन नियम जब स्याही खून सी हो रही हो कह लेने दो कवि को रोने दो तुम कलम को अपने दुख लिखने दो उसके ग़मो को रीतने दो यदि रोक लिए तुमने रोते, उफनते उदगार तो शायद आ जाए बाढ़  हुई यदि हालत इससे बदतर  तो कलम की वेदना मुरझाए और विभिन्न रसों से पगी सनी कृत्रिमता की दीवानी हो जाए कविता के आभामंडल को उसकी सुंदर रस धारा को आहत हो तो रो लेने दो  मुक्त करो कविता को तरह तरह के वचनों से उसे अपने मनोभाव से हौले हौले बहते रहने दो बनादो रास्ते पृथक चाहे पर उसे अपनी मनोदशा खुले आम कह लेने दो      - नीता झा

एक बच्चे का जन्म - Neeta Jha

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एक बच्चे का जन्म - Neeta Jha अच्छी शिक्षा के लिए हर विषय के अलग शिक्षक  का होना जरूरी है। फिर चाहे वह किसी भी कक्षा की पढ़ाई क्यों न  हो इससे बच्चे का सभी विषयों पर एक्सपर्ट द्वारा पढ़ाया जाना उसके उज्ज्वल भविष्य का मार्ग प्रशस्त करता है। वहीं बच्चे के सर्वांगीण विकास हेतु परिवार और आसपास के परिवेश की भी अहम भूमिका होती है।               सत्तर के दशक के लोग जिन्होंने आज़ादी को महसूस किया है उन्होंने बचपन की कितनी ही रातें अपने अड़ोस - पड़ोस या रिश्तेदारी के स्वतंत्रता सेनानी,शहीद परिवार या वर्तमान समय मे भी सच्चे देशभक्त किरदारों की कथाओं के साथ ही गुजरती थीं वो नाना-नानी, दादा-दादी से किस्सों कहानियों के साथ जीवन जीने के गुर भी कब सीख जाते पता भी नही चलता  अलग-अलग लोग, भाषाएं, परिवेश में किस्से कहे जाते चाहे वह गीत, संगीत के माध्यम से हो या और किसी तरह से हो सबका सार होता बच्चों का सर्वांगीण विकास तथा अपनी अपनी ख़ास कला या विद्या से आनेवाली पीढ़ी को पोषित करना इसके केंद्र में यह भावना होती थी फलां बच्चा मेरी विद्या का सही ला...

हे देवी (कविता) - नीता झा

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हे देवी हे देवी, हे शक्ति सुता हे अन्नपूर्णा, हे माता ये आदर जब मिलता है मन होता कुछ पल भ्रमित तब आल्हादित, पुलकित खो जाती है स्त्री जाल में उस समाज को जीती है जिसे फर्क नहीं कुछ भी उसके मन के अहसासों से भ्रूण परीक्षण भी होते हैं बाल विवाह भी होते हैं बाल विधवा या सधवा अलग अलग सांचे में ढलती समाज की वेदना चुप सहती है अवयस्क माता कुपोषित  परिवार की रस्मों में उलझी सी सबकी खातिर उपवास कर भी भोग सभी को आग्रह से खिलाती कमजोर काया मन भरमाया खुद की दुश्मन खुद ही बनती प्रायः दूसरों के बंदूक की नली अपने कांधे खुद ही रखती जीवन जीती दूसरों की शर्तो पर अपने एक अदद घर को तरसती सारे जग को अपना कहती चलती है डगमग डगमग सी  अपनी कमजोरी सब से छिपाती दूसरों की पीड़ा में दौड़ पड़ती   नीता झा

छोटा सा घर (लघु कथा) - नीता झा

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लघु कथा- छोटा सा घर     बस में बैठते ही शेफाली अपनी पुरानी यादों में खो गई  वो गांव, वहां की आबोहवा, वहां के सारे चिर परिचित चेहरे, हर चेहरे से झलकता आत्मीय रिश्ते का नाम और उन तमाम नामो में सर्वोपरि पुजारिन नानी।      उनका ख्याल आते ही शेफाली का मन भर आया वह भावुक हो गई किसि तरह रजत ने उसे समझा बुझा कर शांत किया और उसकी तन्द्रा वापस उन्ही गलियों में विचरने लगी मंदिर के प्रांगण में स्थित छोटा सा घर जिसमे वह बड़े लाड़ प्यार से नानी के साथ रहती थी नानी मंदिर की अघोषित सर्वेसर्वा थीं और वो उनकी सबकुछ थी।      कुछ बड़ी हुए तो उसे पता चला कोई उसे मंदिर प्रांगण में छोड़ गया था और नानी ने उसे पालपोस कर बड़ा किया और जब वह पढ़ लिख कर योग्य हो गई तो सर्ववगुण सम्पन्न रजत से व्याह करवाया बड़े ही मनोयोग से सारे गांव ने मिलकर इस बिटिया का व्याह रचाया खबर आई थी नानी बीमार हैं शेफाली के सास ससुर ने दोनों को नानी को अपने घर लिवा लाने भेजा ताकि उनका समुचित इलाज हो सके और  नानी अब बाकी जीवन आराम से उनके साथ रह सकें।      नीता झा   ...