क्या जीवन अब भी चलता है? नीता झा।
बच्चियों पर होते अत्याचार न जाने कब थमेंगे?
मन बहुत दुखी हो जाता है। जब ऐसी घटनाओं के बाद बहुत से दिल ताउम्र एक भी पल सुख के नहीं बिता पाते होंगे, जिस घर से ऐसी अर्थियां उठती होंगी वहां फिर कभी क्या खुशियां उन्मीक्त नाचती होंगी कभी नहीं।
इस घिनौने अपराध को अंजाम देने वालों के दिमाग मे ऐसा क्या चलता होगा?
क्या इस अपराध के मूल कारण पर कभी चिंतन होंगे?
क्या कभी इन अपराधों पर वास्तव में अंकुश लग पाएगा?
ऐसे बहुत से प्रश्न सभी के मन मे उठते हैं। जवाब के न मिलने तक सवाल नासूर की तरह हर इंसान को सालते रहेंगे। "क्या जीवन अब भी चलता है" इन प्रश्नों के दूसरे पहलू को उकेरने का प्रयास है।
हम जितनी आस्था भगवान पर रखते हैं उतना ही विश्वास लोक,परलोग, आत्मा, पुनर्जन्म इत्यादि पर भी करते हैं। यह हिन्दू धर्म के साथ समाहित है तभी तो हम श्राद्ध कर्म को इतनी श्रद्धा से सम्पन्न कराते हैं। मेरी यह कविता इन्ही विषयों के इर्दगिर्द धूमती हुई वेदना है
क्या जीवन अब भी चलता है!हम सबके न होने के बाद ?
घर आंगन कैसे लगते हैं !
हमारी अर्थी उठने के बाद ?
गमलों में पानी कौन दे रहा ?
दादी को देता है कौन दवा ?
दादू के चश्मे की सफाई,
भाई की बेवजह खिंचाई
अब कौन करता है भला ?
माँ से बातें सहेलियों वाली,
मैं ही तो थी सखी निराली
मेरे बिन अब वो कैसी होंगी ?
पापा को पानी मैं ही देती थी,
उनका सिर मैं ही दबाती थी,
अब किससे वे सब कहते होंगे ?
उनकी मदद अब कौन करता होगा ?
कौन उन्हें गुदगुदा हंसाता होगा ?
माँ तो हैं बड़ी भुलक्कड़
रोज करती हैं गड़बड़
उनको कौन सब याद दिलाता होगा ?
कौन उनसे कहानियां सुनता होगा ?
घुमाने किसे ले जाते होंगे ?
मेरी चूड़ी, काजल, बिंदी, पायल
सबका अब वे क्या करते होंगे ?
मेरी गुड़िया को कौन सुलाता होगा ?
डॉगी को भैया अकेले घुमाता होगा ?
और हां तुम आई हो अभी ही बताओ
जिन्होंने बर्बरता की हदें पार कर ,
हमे मार दिया था तिल तिल कर,
वे अब भी जिंदा घूम रहे या फिर
उन्हें भी वैसी ही सज़ा दी गई है ?
क्या उद्वेलित भीड़ कुछ कर पाई ?
या न्यायपालिका सी सुस्त हो गई ?
जिन हाथों ने छीन-झपट कर,
कुत्सित कृत्य के बाद बेरहमी से
लहूलुहान अधमरा ही फेंक दिया
कितनी वेदना सह हमने आखिर
हफ्तों घुट- घुट कर दम तोड़ा था
क्या वो मंज़र सब धूमिल हो गए
जो हर मन में पीड़ा भरते थे ?
बहने अपराधी को बांधती होंगी
उन हाथों में क्या अब भी राखी
जिन हाथों ने हमे उजड़ा था ?
कैसे लेती होंगी वचन रक्षा का,
जिसने हमारा सर्वस्व लील लिया?
स्त्रीजाति अब भी क्या मौन खड़ी है ?
अत्याचार से हारी बेजान पड़ी है ?
पर यह क्या ?
वह बिल्कुल मौन हुई थी
हफ्तों की मर्मान्तक पीड़ा से
बस अभी ही तो मुक्त हुई थी
कटी, छिली, अधजली देह
टूटी हड्डियों की सिहरने
अंतहीन पीड़ा और संताप
सारे अपनो का रुदन, विलाप
सारा कुछ छोड़ वहीं वह उदास
अनन्त सफर को निकल पड़ी थी
और जा लगी अपनो सी अनगिनत
रोती- चीखती, तड़पती आत्माओं संग
और सबके छटपटाते प्रश्नों से सहम
कान दबा जोरों से चीख पड़ी थी।
नीता झा
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जवाब देंहटाएंबेहद ही मार्मिक कविता है
हटाएंबहुत सुंदर कविता।
जवाब देंहटाएंमार्मिक।
बहुत मार्मिक कविता , जो स्त्री जाति की वेदना को बयां कर रही है ।
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