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शरद का चांद आया आंगन - नीता झा

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शरद का चांद आया आंगन... पारिजात के फूलों से मिलता।।  लचकती टहनी से अटकता...  थोड़ा छुपता, थोड़ा रुकता।।    शरद का चांद आया आंगन...  अपनी शीतलता का नेह लिए।।  बैठ दरी में खीर का भोग लगा...  अमृततुल्य प्रसाद  हमे देता।।   शरद का चांद आया आंगन... चमकता, मुस्काता उपवन में।। कौमुदी उत्सव की उमंग लिए... गीत, संगीत से जीवन सजाने।।    शरद का चांद आया आंगन... सबकी रक्षा करने की खातिर।। औषधियों में अमृत बरसाता... स्वच्छ चांदनी से नहलाता।। शरद का चांद आया आंगन... उषा से अठखेलियाँ करता।। नन्ही ओस बूंदें पत्तों में रख... चला बादलों के देस मिलने।।      नीता झा  शरदपूर्णिमा और कौमुदी उत्सव.....  कौमुदी मतलब चांदनी। हम कल्पना करें जब आज की तरह न लोगों के पास तेज़ रोशनी की व्यवस्था रही होगी न बहुत ज्यादा साधन न इतनी अधिक जनसंख्या ऐसे में छोटे - छोटे राज्यों में बसे रजवाड़े अपने मनोरंजन की व्यवस्था प्रायः राजा के संरक्षण में करते थे जिसमें सारी प्रजा राजपरिवार के साथ उत्सव मनाती थी। जब सामान्य से अवसर को भी सब लोग मिल...

नन्ही पौध के बनने में वृक्ष - नीता झा

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नन्ही पौध के बनने में वृक्ष.. कितनी पत्तियां टूटी होंगी।। कई झंझावात से लड़कर.. नई शाखें लहराई भी होंगी।। कलियों से फूल, बीज तक.. मौसम की मार सही होगी।। क्यों उदास होते हो मीत.. छोटी - छोटी बातों में तुम।। हंसकर टाल सको तो टालो.. झोली कांटो से भरो नहीं।। क्या कुल्हाड़ी के बनते ही.. वृक्षों ने बढ़ना छोड़ दिया?? उगते फूलों, बीजों को क्या.. अपने गर्भ से न मुक्त किया?? क्या खुशबू से रिक्त हुई कली.. क्या फल के स्वाद बदले कभी?? क्या पथिक छांव न पाते हैं.. क्या सावन में झूले न पड़ते हैं?? फिर बोलो है प्रिय इस जग में.. जरा सी बातों में कैसी उदासी?? उठो, चलो फिर हंसकर हम.. राह नई नवेली फिर चलते हैं।। उम्मीदें खुशियों की राह ताकती.. हमारे लिए ही तो खड़ी तभी से।। कुछ उसकी भी तो सुध लेते हैं.. चलो चलें संग खुशियों के हम।। मिल - जुल उत्तुंग शिखर छूते हैं.. आओ मीत हम मिलकर अपनी।। मनभावन दुनियां फिर गढ़ते हैं।।    "नन्ही पौध को बनने में वृक्ष" यह कविता मैने उनके नाम लिखी है जो अपनी नाकामयाबी पर टूटने लगते हैं। आपका कामयाब या नाकामयाब होना आपको उस एक विशेष स्थान पर लाकर खड़ा तो करता है अ...

महामारी और राजतिलक - नीता झा

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सुबह की चाय के साथ समाचार देखने की आदत ने आज फिर बहुत से सवाल खड़े किए।  टीवी पर बिहार की राजनीतिक और चुनाव को लेकर किसका होगा राजतिलक पर मीडिया वाले बकायदे दरबार लगाए बैठे थे बिना मेकअप, बिना मास्क और बिना ग्लब्स के सभी दरबारी हलचल मचाए हुए थे। सब चाक चौबंद जरा सी आहत हुई कि पूरे लावलश्कर के साथ कैमरा माइक लिए दौड़ने को तैयार गोया चुनाव नहीं खो, खो खेला जा रहा हो आपकी जानकारी के लिए बता दें खो, खो में एक ही पन्गती में पक्ष- विपक्ष दोनों बैठते हैं। अब आप कहेंगे ये कैसा विपक्ष हुआ?  यही तो है असली खेल....       दोनों पार्टी अगल - बगल मस्त, बोलते- बतियाते शादी - पार्टी की बातें करते लेकिन विपरीत दिशा में मूह किए यानी टीम १  दांए तो टीम २ बाएं बैठे....   एक खिलाड़ी गोल गोल चक्कर लगाता खो... कहकर जिसकी पीठ पर हाथ रखे वह उठकर दौड़ेगा और वो भागने वाले कि जगह पर बैठेगा अपने लिए खो.... के इन्तजाए में।  कभी आप हमारे यहां के इस खेल को देखेंगे तो टिकिट बटवारे से लेकर चुनाव जीतने के सारे गणित आसानी से समझ जाएंगे।  रही बात चुनावी मुद्दों की, तो न ...

युद्ध, युद्ध और युद्ध - नीता झा

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     युद्ध का सीधा मतलब विरोध की पराकाष्ठा है। लेकिन  कई परिस्थितियां अपनी अलग ही कहानी कहती हैं। इतिहास गवाह है ऐसे कई युद्धों का जिनके तह में प्रेम ही प्रेम था।। फिर ऐसा क्या होता है कि प्रेम को भी युद्ध, घृणा, अपमान इत्यादि से होकर गुजरना पड़ता है?  फिर अंततः घोर निराशा, दुख, पीड़ा के अवसादों की कसक जीवन की मिठास छीन लेती है। काश प्रेम में सिर्फ प्रेम होता, खुशी में सिर्फ खुशी होती फिर दुनियां कितनी सुंदर होती.....                    युद्ध, युद्ध और युद्ध.. शांति के लिए युद्ध!! ज़िन्दगी के लिए युद्ध,, न्याय के लिए युद्ध,, प्रेम के लिए भी युद्ध,, क्या है इस कि थाह में?? ज़िद, अहंकार, प्रतिकार,, नेकी में छिपा व्यभिचार.. या चमकीली पोषक में,, ढंका छुपा गहरा संताप.. क्या इतना ज़रूरी है युद्ध?? क्या इतना मिला जुला है,, युद्ध शांति का भीतरी रूप?? कौन किसे जी रहा और.. किसे क्या हम समझ रहे?? न्याय का पथ क्यों रक्तिम.. क्यों बेबस प्रेम भाव कहो??   साथियों यदि आपको मेरी लेखनी शेयर करने के काबिल लगती है तो शेय...

चिता फिर खूब सजी - नीता झा

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चिता फिर खूब सजी थी... चारों ओर अंधेरा था!! पंचतत्व में विलीन हुई वो... जिसे जीना अभी और था!! तिल-तिल कर जुड़े कर्म... वो उम्र, न समय मिला था!! चिता फिर खूब सजी थी... चारों ओर अंधेरा था!! दुर्दशा पर जग भी रोया था!! कुछ रोटी जो सिंकी नहीं थीं... कुछ बातें जो कही नहीं थीं!! माँ का कलेजा दहला था... चिता फिर खूब सजी थी... चारों ओर अंधेरा था!! कुछ अरमान सन्दूक में धरे!! कुछ वक्त पे पूरे करने थेे... बचपन से जो ख्वाब देखे!! उनमें भी तो रंग भरना था... चिता फिर खूब सजी थी.. चारों ओर अंधेरा था!! मर्मान्तक पीड़ा कहती थी... जीना उसे भी खुशी से था!! टूटी हड्डियों, घायल तन था... भरे मन से विदा हुई जग से!! चिता फिर खूब सजी थी... चारों ओर अंधेरा था!! न अपना कहीं कोई भी था... अजनबियों का घेरा था!! दरिंदगी की पराकाष्ठा थी... और साजिशों का डेरा था!!         लगातार हो रही टीवी पर बहस,हीनता, विद्रोह और आंदोलनों से मन बड़ा खिन्न हो गया है। तब कहीं पीड़ा से उपजी कविता "चिता फिर खूब सजी"से पीड़ा छलकी है।एक घर जब किसी सदस्य को खो देता है तो उसकी यादें मन पर और गहरे तक जड़ें जमा लेती हो...

हिंदुस्तानी बिटिया - नीता झा

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रोटियां सिंकती हो जब लाशों की लपटों से तब  कैसे बचे बोलो अस्मत हिंदुस्तानी बिटिया की जा बैठे राज तंत्र में और  नैतिकता के विधानों में  अनैतिक शाला चलती  उनके ऊंचे मकानों में  बोटियाँ जब बेची जाती  सरे आम बाजारों में  हां बोटियाँ ही कहाती  घर की लज्जा बाजारों में  जला,पहले ही ख़ाक हुआ   अब शेष शोले न चिंगारी हैं  बिकते बिकते हिंदुस्तान  राख ही शेष रह जाएगा  अग्निपरीक्षा, जौहर से बढ़  रेप वजह कलंकी हो गया  किसे क्या है?किसकी पड़ी  हर एक सौदे में लगा हुआ  हिंदुस्तान को छलते छलते  अपनी भी अस्मत बेच रहा  रेप से जलता हिंदुस्तान   लाचार दिखाई देता है  बुद्धिजीवी के माथे से निकल  ठहरा तिजोरी में जा बसता है      नीता झा