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रिश्तों के वेंटिलेटर आने लगे दूर देश से - नीता झा भाग-4

"रिश्तों के वेंटिलेटर आने लगे दूर देश से" - नीता झा  भाग-4    सुमि उसे एकटक देख रही थी-" क्या बात है बहुत परेशान लग रहे हो"?   हाँ यार घर की बहुत याद आ रही है।"   आगे वह कुछ नहीं बोल पाया गला भर गया   हिम्मत रखो एक दो दिन की ही तो बात है।    मैं सोच रहा था अभी फ़िलहाल मैं अकेला जाऊंगा   सुमि ने कुछ नहीं कहा बस उसे देखती रही कहती भी क्या वह जानती थी वीनू  की छटपटाहट उसने वीनू के सर पर  कोमल उंगलियों से सहलाकर हल्की मुस्कुराहट के साथ मौन स्वीकृति दे दी लेकिन उसके चेहरे से चिंता साफ झलक रही थी।    "मेरा भी बहुत मन है। अभी पापा मम्मी को हमारी सबसे ज्यादा जरूरत है,और हम यहां हैं। बुरा लग रहा है वीनू.... उसने उठते हुए कहा -"चलो बैग पैक करते हैं।"   "अभी बच्चों को लेकर इतना लम्बा सफर ठीक नहीं है। मैं जाता हूं वहां पहुंच कर देखते हैं क्या करना है।"   ठीक है...   कहकर सुमि वीनू के साथ सामान जमाने लगी।     वीनू के लिए दोनों को ऐसी महामारी के समय छोड़ कर निकल पाना आसान तो नहीं था लेकिन सुमि ने समझदारी दिखाई उसन...

"रिश्तों के वेंटिलेटर आने लगे दूर देख से" - नीता झा भाग - 3

                                                                                                              पापा मम्मी चले गए वीनू का घर सुना करके। हर जगह उनकी मौजूदगी का अहसास छोड़ कर खैर... धीरे- धीरे नन्हे रुद्र के साथ दोनों की व्यस्तता बहुत ज्यादा बढ़ गई थी। खुद ही सारा काम करना पड़ता था। अब लगता है वह काफी समय से पापा मम्मी की तरफ उतना ध्यान नहीं दे पा रहा था। जितना देना चाहिए था। कई बार पैसे भेजने में भी देर होने लगी। उन्होंने कभी खुद के लिए वीनू से कुछ नहीं माँगा बस उसी की ज़िद थी पढ़ाई में लिए लोन पटाने के बाद भी वह कुछ पैसे हमेशा भिजवाता रहेगा वीनू की ज़िद का मान रखते थे पर कभी पैसे भिजवाने में देर हुई या नहीं भेजा तो याद भी नहीं दिलाया  और "वो सब ठीक है" का चश्मा लगाए धीरे धीरे अपनी जिम्मेदारियों से विमुख ...

रिश्तों के वेंटिलेटर आने लगे दूर देश से - नीता झा भाग-2

   "रिश्तों के वेंटिलेटर आने लगे दूर देश से"  भाग-2          उसने प्रणाम करके फोन रख दिया। वह उदास हो गया था। आज मम्मी- पापा की बहुत याद आ रही थी। मन भारी हो गया तो वह बालकनी में बैठ गया सोचने लगा कुछ तो करना ही पड़ेगा ऐसे काम नहीं चलेगा सब कितने मजे से चल रहा था उसकी विदेश में  शानदार नोकरी, बढ़िया घर सुंदर सुशील बीवी, प्यारा सा बच्चा भगवान ने उसके सारे सपने पूरे किए। क्या सच में भगवान ने यूँ ही सपने पूरे किये... नहीं, उसकी हर उपलब्धि में उससे ज्यादा मेहनत तो पापा-मम्मी की है। उसे अच्छे से याद है। कैसे उनलोगों ने छोटे से शहर में रहकर भी पापा की टीचिंग जॉब में सबकुछ मैनेज किया था उसकी फ़ीस, खाना, पहनना, संस्कार हर चीज में विशेष ध्यान दिया, वीनू ने भी उनकी मेहनत की हमेशा कदर की वही उनका बेटा भी है, और बेटी भी इकलौती संतान की दोहरी जिम्मेदारी वह बखूबी समझता था। इसी कारण पापा के साथ बाहर के कामों में लग जाता और मम्मी के साथ घर में उनका हाथ बटाया करता था। उसे पता था उसको दी जाने वाली हर सुविधा के लिए पापा- मम्मी को कुछ न कुछ अलग से व्यवस्था करन...

कहानी "विदेशों से आते वेंटिलेटर" के विषय मे - नीता झा

शिशु का जन्म अभिभवको के लिए ही नहीं अपितु सभी लोगों के लिए बड़ा सुखद होता है। बच्चों की मौजूदगी पूरे माहौल को गतिशील बनाती है। सबके साथ हंसते खेलते परवरिश पाने वाले बच्चे कब धिरे-धिरे बड़े होने लगते हैं , कब उनकी कोमल उंगलियां कॉपी-पेंसिल के साथ शौक की ओर बढ़ने लगती हैं, कब वो पड़ोस वाली मुन्नी बुआ से ड्रॉइंग बनाना सीखने लगते हैं, कब नन्हा बच्चा खाली डिब्बे को पैरों से उछलता हुआ मानू भैया से फुटबॉल सीखने लगता है पता ही नहीं चलता और कब वह आलोचनाओं, तारीफों के बीच शारीरिक ऊंचाइयों के साथ अपनी योग्यता का भी कद बढ़ता जाता है और कब वह अपनी मेहनत और योग्यता के माध्यम से अपना मुकाम पा लेता है। पता ही नहीं चलता। साथ ही उस शिशु के युवा होने के साथ उसके युवा माता-पिता कब बूढ़े हो जाते हैं पता ही नहीं चलता। अपनी बढ़ती उम्र और घटती शारीरिक, सामाजिक शक्तियों की कुंठा और उसके लिए किए गए उपायों को मैने अपनी कहानी "विदेशों से आते वेंटिलेटर " में विस्तार से उकेरने का प्रयास किया है। आशा करती हूं, हमेशा की तरह आपलोगों की आशीर्वाद रूपी प्रतिक्रिया मिलती रहेगी।               ...

दूर देश से आते रिश्तों के वेंटिलेटर - नीता झा

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"मम्मी कोरियर वाला आएगा, आप तब तक सामने कमरे में पहुंचो... थोड़ी जल्दी चलना मेरी माँ... वो चला न जाए पिछली बार की तरह"   वीनू का फोन आया था लीना का चेहरा उतर गया उसने बुझी अवाज़ में बस इतना ही कहा-" अब क्या भेज रहा है? हमलोगों को कुछ नहीं चाहिए" और मोबाइल मनोज के सीने पर रख कर उठने का उपक्रम करने लगी।   उठते - उठते उसकी आह निकल गई, घुटना बहुत दुख रहा था। सब गाउन भी ढीले हो गए थे उठते-बैठते कभी पैरों में कभी दरवाजे में फंसते रहते वो लगभग घिसटती हुई बाथरूम की तरफ जाते हुए जोर से बोलीं -"मनोज वीनू फिर कुछ भेज रहा है!उससे कह दो, हमे कुछ नहीं चाहिए" और जोर से बाथरूम का दरवाजा बंद किया। वीनू जनता था पापा ने पिछले 6 महीने से कुछ कहा ही नहीं है; उन्हें लकवा जो हुआ है। बात करने के नाम पर कुछ अस्फुट ध्वनि ही बड़ी मुश्किल से निकलती है। शब्द नहीं फिर भी वह उनसे हालचाल पूछता रहा वो कह न सकते हों पर सुनते तो हैं।वीनू उनके आंसुओं को महसूस कर पा रहा था। मोबाइल में घरघराहट की आवाज बढ़ने लगी... शायद पापा बोलने या रोने लगे थे। उसने प्रणाम करके फोन रख दिया।   वह उदास ...

कजली तीज - नीता झा

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      कजलीतीज        सावन के रथ, हो सवार.. आया तीज का त्योहार। सर पे चुनर, लाल सजे.. मांग गौरसाठ का सिंदूर, आंखों में, सपने हजार.. माथे में चमके बिंदिया, गले सजे, हार सजीला.. करधनी के मोती चमके, जिसमे मनके हजार.. गोरी कलाई, मेहदी सोहे और चूड़ियां के रंग लाल.. पायल से अलता झांके, घुंघरुओं संग देते ताल.. सोलह सिंगर कर बैठी  दुल्हनियां दूल्हे संग  जैसे गौरी संग बैठे नाथ..             नीता झा

अंत भला तो सब भला - नीता झा

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कल रविवार है। यानी छुट्टी पूरा दिन घर पर पूरा आराम  रविवार का टीवी मतलब मेरी जागीर! मैं चाहे जो देखूं कोई कुछ नहीं कहता ...कोरोना काल का एक अलग पहलू ....वर्ना पहले तो हालत ये थी, कि टीवी के रिमोट को कैसे चलना है ये भी मुझे नहीं आता था। सबका टाइम सेट होता था बस मेरा कोई समय नहीं था। कभी धोखे से टीवी बंद हुआ हो और कोई देखने की हालत में न हो, तो मुझे किसी से कहना पड़ता था -"यार जरा समाचार तो लगा दे" समाचार....? हां... देखें क्या चल रहा है मम्मी समाचार किस नंबर में आता है? पता नहीं मैं कब देखती हूँ नानू आए थे तब तो बहुत लगाते थे वो खुद लगा लेते थे.....बब्बजी से पूछ लो.....या तुम ही  सर्च करलो बेटू कभी कभार ही तो पापा देखते हैं! अभी तनीषा आएगी और अपना डांस वाला प्रोग्राम लगा लेगी ....    मतलब जो देखना है जल्दी देख लो फिर मत कहना बताया नहीं .....    हम भी कुछ भी लगा कर बैठ जाते कभी भी कहीं से भी देखना हो तो आसान चेनल वाइल्डलाइफ कोई दिमागी उठापटक नहीं कोई छल कपट नहीं बस कभी भी देख लो जब भी बंद करो तो यह मलाल नहीं की फलां ने फलां को क्या कहा, किसकी सरकार...

मर्यादा - नीता झा।

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स्त्री जब जाए   मर्यादा के बाहर पांव की बिछिया  उलझ जाती है। देहरी की पायदान से... पांव की पायलशोर मचाती है। अपने छोटे छोटे घुंघरुओं से रुकने की मनुहार करती है। स्त्री-------------बाहर  करघनी अवगत करती है, बोझ भरी जिम्मेदारी से। स्त्री-------------बाहर  मंगलसूत्र सारे मनके खिंच लाते हैं वापस  चारदीवारी के भीतर। स्त्री--------------बाहर मांगटिका ज्ञानचक्षु को  ढंक देता सामाजिक  सम्मोहक, दायित्वों के नाम। स्त्रीे -----------------बाहर उसका लिबास ढंक लेता है। छुपा लेता है, कुत्सित जनो से सात पिंजरों के भीतर, अपने  रंगमहल में अपनी बना कर  मर्यादा के ,चटकीले भ्रामक   गहनो से खूब सजा कर। पर  स्त्री की खुशी क्या है? उसकी काबिलियत क्या है? और उसका दृष्टिकोण क्या है? कोई नही पूछता ,वो क्या चाहती है... पुरुषप्रधान समाज पूछ नही पाता क्योंकि घबराता है, स्त्री से और उसकी अदम्य इक्छा शक्ति से, फिर उसे डराता है.....  तरह तरह की कथाओं से, बहकाता है, भावनाओं के नाम पे... कैद करता है, सुरक्षा के नाम पे, सौदे करता है, आधुनिक...

ओहदा - नीता झा

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उनके ओहदे..... सुना था लड़की मॉडल है? अब कुछ नहीं, वो गृहणी है। सुना था लड़की डॉ है.....  अब कुछ नहीं वो गृहणी है।  सुना था लड़की वकील है....  अब कुछ नहीं, वो गृहणी है  सुना था लड़की प्रोफेसर है.....  अब कुछ नहीं वो गृहणी है  सुना था वो अभिनेत्री है......  अब कुछ नहीं, वो गृहणी है  कितने पदों को ढंकता सा  गृहणी का एक अकेला नाम...             क्या है?             क्यों है?          किसके लिए?        किसकी मर्ज़ी से?    सभी बन जाती हैं अंततः  अपने सारे अस्तित्व को समेटे,...  गृहणी, गृहणी,गृहणी और गृहणी...  मन क्लांत,वाणी असंयमित,  वर्षों की मेहनत होती व्यर्थ।।  रात- दिन की घण्टों पढ़ाई...  सारा मायके ही छोड़ आई।।  सालों के अर्जित वो मैडल...  शिक्षा के वो झरने अविरल  थम गए बर्फ बन जम गए।  मायके में ही सारे  जम गए।।  शौक भी तो वहीं छोड़ आई...  नए बैग में नए कपड़े, गह...

उनके ओहदे - नीता झा

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सुना था लड़की मॉडल है? अब कुछ नहीं, वो गृहणी है। सुना था लड़की डॉ है.....  अब कुछ नहीं वो गृहणी है।  सुना था लड़की वकील है....  अब कुछ नहीं, वो गृहणी है  सुना था लड़की प्रोफेसर है.....  अब कुछ नहीं वो गृहणी है  सुना था वो अभिनेत्री है......  अब कुछ नहीं, वो गृहणी है  कितने पदों को ढंकता सा  गृहणी का एक अकेला नाम             क्या है?             क्यों है?          किसके लिए?        किसकी मर्ज़ी से?    सभी बन जाती हैं अंततः  अपने सारे अस्तित्व को समेटे,...  गृहणी, गृहणी,गृहणी और गृहणी...  मन क्लांत,वाणी असंयमित,  वर्षों की मेहनत होती व्यर्थ।  रात- दिन की घण्टों पढ़ाई,  सारा मायके ही छोड़ आई।  सालों के अर्जित वो मैडल,  शिक्षा के वो झरने अविरल  थम गए बर्फ बन जम गए।  मायके में ही सारे  जम गए।  शौक भी तो वहीं छोड़ आई  नए बैग में नए कपड़े, गहने।  आंचल में बांधे संस...

याद आती हो तुम वैशाली - नीता झा

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नन्हे पौधों पर जमी हुई हो धूल  उसे देख याद आती हो तुम वैशाली... भारी बैग उठाई थकी हुई बेचारी, मुरझाई याद आती हो तुम वैशाली... ओस सूखे, पत्ते देखूं कहीं जब, तेज़ गर्मी में स्कूल जाती हुई दुखी तुम याद आती हो वैशाली... खाने बैठूं जब अकेले मैं भूखा रूठी होकर मुझसे जब तुम रोती सुबकती सोती हो ऐसे ही, भूखी तुम याद आती हो वैशाली... जब कभी छोड़ता हूं तुम्हे मैं, पकड़ लेती हो पांव मेरे कस कर! साथ आने बिगड़ती, ज़िद करती गुस्साती याद आती हो तुम वैशाली... जब कभी देखता हूं किसीको भाग कर फेरी वाले को बुलाते ठुमकती तुम याद आती हो वैशाली... दूर हूं बहुत तुमसे खातिर तुम्हारी बातें जब करता हूं तुमसे लम्बी दूरी हमारे बीच बढ़ती देख उदास तुम याद आती हो वैशाली... आना चाहता हूं सब छोड़ कर, तुम्हे संवारना चाहता हूं रोज! सुनानी हैं कहानियां बहुत सी धुमाना है कंधे में बिठाकर तुम्हे आँखें नम से याद आती हो वैशाली आना चाहता हूं छोड़ सब यहां का हमेशा के लिए पास तुम सबके क्या तुम भी चाहती हो मुझे इतना के साथ रहने के बदले छोड़ पाओगी बड़ा घर, बड़ी गाड़ी और महंगा स्कूल?             ...

तुम याद आती हो वैशाली - नीता झा

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नन्हे नन्हे पौधों पर जमी धूल   देख याद आती हो तुम वैशाली भारी बैग उठाई थकी हुई बेचारी ओस का सुखना पत्तों पर जल्दी याद आती रोती बस में होतीं तुम हमारे पास आने रोती, मचलती अनसुनी होने पर उदास हो सोती जब भी कमरे के बाहर देखता हूं नन्हे-नन्हे बच्चों को खेलते हुए भाग कर फेरीवाले को बुलाते देख याद आती हो तुम वैशाली तुम्हारी फोटो सीने से लगाए बात कर लेता हूं तुमसे फोन में हां वैशाली आंखे नम हैं अब भी आना चाहता हूं सब छोड़ कर हमेशा के लिए पास तुम सबके क्या तुम भी चाहती हो मुझे इतना के साथ रहने के बदले छोड़ पाओगी बड़ा घर, बड़ी गाड़ी और महंगा स्कूल?                   नीता झा

हरियाली का हुआ आगमन - नीता झा

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                         हरियाली का हुआ आगमन, झूम उठे सारे जड़-चेतन। प्रकृति का हुआ सिंगार, धरती भी मना रही त्योहार.....            जी हां लम्बी रूक्षता के बाद होती बारिश बड़ी आनन्ददायक होती है। मौसम में घुलती नमी, हवाओं में समाई मिट्टी की सोंधी खुशबू और बारिश में सराबोर पत्तों का हवा संग कम्पित हो नृत्य करना बड़ा सुकून देता है।  बरसात का आना यानी धरती का हरित श्रंगार उसपे खूबसूरती को चार चन्द लगाते रंग बिरंगे फूलों की खुशबूदार अदाकारी मन को बड़ा सुकून देती हैं। यह कहना अतिश्योक्ति न होगी की बारिश और हरियाली एक दूसरे के पूरक हैं। दोनों का आनन्द चाहिए तो इनसे मित्रता करनी होगी स्वार्थपरक नहीं निःस्वार्थ मित्रता ताकि प्रकृति का संतुलन बना रहे हम प्रकृति प्रदत्त जीव हैं। जब भी इंसन ने खुद को प्रकृति से बड़ा समझ उसने बड़े अच्छे से समझाया लगातार समझा भी रही है। जब नहीं समझते या समझकर भी नासमझी करते हैं तब होती है। प्राकृतिक आपदा जो काफी कुछ कभी-कभी सारा कुछ तहस-नहस करके रख देती है। वहीं ...

प्रकृति का श्रंगार - नीता झा

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हुआ आगमन, झूम उठे सारे जड़-चेतन। प्रकृति का हुआ सिंगार, धरती भी मना रही त्योहार.....            जी हां लम्बी रूक्षता के बाद होती बारिश बड़ी आनन्ददायक होती है। मौसम में घुलती नमी, हवाओं में समाई मिट्टी की सोंधी खुशबू और बारिश में सराबोर पत्तों का हवा संग कम्पित हो नृत्य करना बड़ा सुकून देता है।  बरसात का आना यानी धरती का हरित श्रंगार उसपे खूबसूरती को चार चन्द लगाते रंग बिरंगे फूलों की खुशबूदार अदाकारी मन को बड़ा सुकून देती हैं। यह कहना अतिश्योक्ति न होगी की बारिश और हरियाली एक दूसरे के पूरक हैं। दोनों का आनन्द चाहिए तो इनसे मित्रता करनी होगी स्वार्थपरक नहीं निःस्वार्थ मित्रता ताकि प्रकृति का संतुलन बना रहे हम प्रकृति प्रदत्त जीव हैं। जब भी इंसन ने खुद को प्रकृति से बड़ा समझ उसने बड़े अच्छे से समझाया लगातार समझा भी रही है। जब नहीं समझते या समझकर भी नासमझी करते हैं तब होती है। प्राकृतिक आपदा जो काफी कुछ कभी-कभी सारा कुछ तहस-नहस करके रख देती है। वहीं यदि हम अपनी हद में रहते हैं तो वही प्रकृति माँ बनकर हमारा पोषण करती है ।         ...

सावन सोमवार की शुभकामनाएं - नीता झा

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आप सभी को वर्षा ऋतु के पावन पर्व "सावन सोमवार" की शुभकामनाएं.... आप सपरिवार खुश रहें, स्वस्थ रहें और प्रकृति की अनवरत चलती गति के साथ कदमताल करते हुए जीवन का आनन्द लें।      साथियों हर त्योहार अपने साथ बड़ा ही मोहक सन्देश लिए होता है। जिसमे मौसम के परिवर्तन, तो कभी फसलों की बोवाई, कभी उन्नत फसल की प्रार्थना, फसलों की कटाई तो कभी नई फसल को अपने इष्ट को समर्पित करके आभार व्यक्त करने जैसे भाव निहित होते हैं; साथ ही सभी प्राणियों को त्योहारों के माध्यम से हमारे जीवन में होने वाले उनके सहयोग हेतु आभार व्यक्त करना और अपने सभी रिश्तों की मंगलकामनाओं हेतु  मनाते हैं। यह अवसर अपने परिजनों के साथ होने पर और भी आनन्ददायक होते हैं।       इसबार कोरोना वायरस के प्रकोप, भारत चीन सीमा विवाद, बारिश,भूकम्प इत्यादि तरह-तरह की परेशानियों से मन में उदासी सी हो गई ऐसे में अब समय है। धैर्य और सूझ- बुझ से इन विषमताओं का सामना करने का। समय अपनी गति से बढ़ रहा है। उम्मीद रखे अच्छा समय भी आएगा सब पहले की तरह होगा तब तक सतर्क रहें अपना व अपने अपनो का ध्यान रखें। ...

गुरु पूर्णिमा - नीता झा

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गुरु की महत्ता को नमन करने का पर्व गुरु पूर्णिमा,इस पावन पर्व में सभी गुरुजनो को नमन...  मनुष्य में जन्मजात प्रवृति होती है;अपने आस पास के परिवेश को देख, सुन,महसूस करके सिखने की। नवजात शिशु पढ़ना, लिखना,बोलना नही जानता किन्तु जन्म से ही सिखने की सतत प्रक्रिया मृत्यु पर्यन्त चलती ही रहती है।     जब हमे यह समझ आने लगता है कि हमारी शिक्षा का कोई नाम मिलने लगा है; तो हम वहां से अपनी शिक्षा की गणना करने लगते हैं।जबकि गुरु तो प्रकृति भी है। जड़ , चेतन, दृश्य,अदृश्य ,छोटे,बड़े,अपने,पराए जिनसे भी हम कुछ भी सीखते समझते हैं वही तो गुरु है ।       हम जीवन के अलग- अलग पड़ावों में कुछ न कुछ सीखते ही रहते हैं अब हमपर निर्भर करता है; हम किससे और क्या सीख रहे हैं । जो हम सीखते हैं समाज देश और हमारे परिवेश पर उसका क्या प्रभाव पड़ता है। अर्थात सीधे शब्दों में कहें तो हम अपशब्द सीख रहे हैं अथवा भजन हमपर निर्भर करता है ।      विभिन्न समय व परिस्थितियों में हमारे ग्रहण किए हुए ज्ञान के मतलब भी बदल जाते हैं।दोनों ही अर्थ सही होते हैं जैसे हमें पहले सिखाया ज...

बरगद - नीता झा

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बरगद भी कभी नन्ही पौध हुआ करता नन्ही नन्ही शाखों पर नर्म पत्तों वाला। हल्की हवा में भी जो डगमगाने लगे,  सबको अपनी कोमलता से लुभाता।  आज उलझी-उलझी जटाओं वाला,  अपनी विशालता से अचंभित करता।  लोगों को बड़ी घनी छांव देने वाला,  कभी धूप में झुलस मुरझाया करता।  मेरे माता-पिता ने क्या इससे सीखा?  या उन्हें देख यह यूँ विशालकाय हुआ,  अम्मा कहतीं सात पौधे साथ लगाए  ताकि सबकी एक साथ ही पूजा करूँ।  मुझे याद है गिनते थे पहले हम उन्हें,  बाद बढ़ सब एक हो गए थे गूंथे-गूंथे  और हम उनके बच्चे सारे साथ बढ़े,  अब सारे अपनी दुनियां में रम गए।  सब अपनी खूबियों से निखरते हुए,  अस्तित्व अपने अपने गढ़ने में लगे।                   नीता झा