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जनवरी, 2021 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

मंच को नमन करते हुए २६जनवरी के उपलक्ष्य में मेरी कविता सादर प्रेषित– नीता झा

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आ रहा है पर्व प्यारा.. शब्द मोती सजाने की आस लिए जा रही हूं.. आज मैं छंद में प्यारे प्यारे रस छंद.. प्यारी प्यारी भावना सुंदर सी रचना से.. आरती हूं करती मैं मेरी माता भारती को.. सोहे शेर ओजस्वी उनकी भी आरती.. कर रही आज मैं जल थल वायु भेदे.. मेरे भाई निर्भीक उनको भी नमन .. कर रही आज मैं देश चल सकता है.. अपने इरादों से ढेरों तंत्र ढेरों पार्टी.. लगी रही सेवा में रत्नों की कमी नहीं..  मेरी माँ के अंगों में सदियों से समृद्ध..  मेरी माँ भारती  कण कण अमृत..  पग पग हीरे मोती  जल थल नभ सब..  बहे ज्ञान चहुं ओर  वेद, उपवेद सोहे..  वाणी में सजे देवी  कल - कल, छल छल..  बहे नदी झूमती  सिंह जैसी सेना वीर..  बैरियों के सीने चिर  देख भाल करते हैं..   माँ के बेटे शूरवीर  नीता झा

नेताजी की पुण्य स्मृति – नीता झा।

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          नेताजी सुभाषचंद्र बोस जी की पुण्य स्मृति अपने आप मे वंदनीय है। आपने अपनी सारी शक्ति, सारी ऊर्जा देश के लिए लगाई और हमेशा हमेशा के लिए अमर हो गए।          भारत को स्वतंत्र करनेवाले असंख्य वीरों, वीरांगनाओं का अनन्त काल तक हर भारतिय नागरिक ऋणी रहेगा। जिस तरह हम कुछ भी करलें माता - पिता के ऋणी ही रहेंगे वैसे ही जिस भी काल मे जिस किसी ने भी किसी भी तरह की भारत माता की रक्षा की है देशभक्ति का काम किया है। वह सदैव वंदनीय रहेंगे।         हमे भी यह याद रखना चाहिए हम भी उसी भारत माता की संतान हैं तो अपने देश के प्रति हमारा भी कुछ फ़र्ज़ है जिसे निभाना अन्य दायित्वों की तरह ही आवश्यक है।          जिस तरह एक आदर्श परिवार में हर व्यक्ति की अपनी अहमियत और जिम्मेदारी होती जिसे वो सहज भाव से सम्पन्न करते हैं। वो भी अपने व्यक्तिगत कार्यों मनोरंजन इत्यादि अन्य गतिविधियों के साथ ठीक वैसे ही हर व्यक्ति को अपने जीवन काल मे अपनी समस्त जिम्मेदारियों के साथ साथ देश हित के कोई न कोई काम अवश्य करने...

कौड़ी - कौड़ी जोड़ने किए अनन्त उपाय – नीता झा

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  कौड़ी - कौड़ी जोड़ने... किए अनन्त उपाय।। जीवन झीना हो रहा... सेहत दिए भुलाए।। अपनी काया साथ चले... सांसें जब तक होए।।  फिर काहे तू इनसे विमुख... खुद को दिए विसराए।। आंधी- अंधड़ विपदा जीवन... योग पांव जमाए।। कोई विपदा ना हरा सके...  तन में शक्ति होए।।  उठें सबेरे सूरज से पहले...  तन मन खुशियां पाए।।  मन प्रफुल्लित, शरीर स्वस्थ...  जीवन सफल कहलाए।।  खान पान में नियम बरतें... सुपाच्य औषधि होय।।  देंह तंदुरुस्त होवे इससे...  रोग भागते जाएं।। मन चंचल हर समय कुछ न कुछ विचारों में उलझ रहता है। जीवन को सुखमय बनाना चाहते हैं तो इन्हें संयमित, संतुलित करना अत्यंत आवश्यक होता है।       कुछ नियम खुद के लिए भी बना के रखें हमे बचपन से घर मे भी बाहर भी अच्छी बातें सिखाई जाती हैं। सभी अपनो की कोशिश होती है हम अच्छे बने सभी के सतत प्रयासों बचपन से की हुई मेहनत, लगन के बाद ऐसा क्या होता है कि हम वो नहीं बन पाते जो बन सकते थे?      आपने यदि गौर किया होगा तो देखेंगे नन्हे बच्चे की शारीरिक संरचना बड़ी नाज़ुक, कोमल ह...

और सब ठीक हो गया – नीता झा

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कुछ शब्द जो पारे की तरह कानों में पड़ते हैं। जिन्हें सुनना, सहना आसान नहीं होता....  पर किया भी क्या जाए....  कितनो के मुह बन्द करें और किस किस बात पर.... माँ गुस्से में बड़बड़ाती रोटी सेंक रही थी पास ही बैठी लक्ष्मी बर्तन साफ कर रही थी।  क्या हुआ माँ क्यों दुखी हो रही हो? कुछ नहीं लाडो.... बताओ तो... बेटी की पुचकार सुन लाजो का मन भर आया उसने बड़े धीमे से स्वर में बताया-" आज मालकिन के घर साफ सफाई कर रही थी साहब का कोई जरूरी कागज कचरे में डाल दी थी। सब ढूंढ रहे थे जब मैं बताई कचरे में कागज भी था तो मेरेसे निकलवाए और साहब बहुत गुस्सा कर रहे थे। बोले बिना पूछे कोई सामान मत फेका कर वो बता रहे थे। दस हजार का था वो... लेकिन इतना महंगा दिख नहीं रह था... क्या पता क्या था वो भाभी के ऊपर भी बहुत गुस्सा कर रहे थे बोले -" लाजो के लिए तो काला अक्षर भैंस बराबर है तुम तो देखा करो" मेरे कारण भाभी को भी बहुत सुनना पड़ा। बेटी भैया जो बोले उसका क्या मतलब है? लक्ष्मी ने मुस्कुरा कर अपनी माँ को गले लगाते हुए कहा- इसका मतलब है अब हम दोनों रोज रात में बैठेंगे तुम स्वेटर बनाना सीखाना मैं...

मैं भारत की स्त्री - नीता झा।

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मैं अंदर ही अंदर बढ़ रही हूं कभी सँवरती कभी बिखरती हूँ मैं भारत की स्त्री खुद ही खुद को गढ़ रही हूं... मैं अंदर ही अंदर बढ़ रही हूं.... घर तो कभी  खुद को सलीके से सँवारती कभी नया,अलबेला भी गढ़ रही हूं मैं अंदर ही अंदर बढ़ रही हूं.... भूली नही त्रासदी सदियों पुरानी भी इसलिए  बच्चों को देशभक्ति कहानियों  से सीखा रही हूं मैं अंदर ही अंदर बढ़ रही हूं.... गर्भस्थ या गोद मे,  देश भक्ति के काम लगे मेरी हरेक सन्तान हमेशा मुझसे ही तो बल पाती है मैं जो भी उन्हें सिखाऊँ मनोयोग से सीखती है... इसी आशा के चलते अच्छाई के उत्तुंग शिखर  अपनी आमद का  परचम लहरा रही हूं.... मैं आजाद देश की आजाद स्त्री आजादी के सही मायने दुनिया को बता रही हूं.... मैं भारत की स्त्री अंदर ही अंदर  बढ़ रही हूं..... कभी निखरती कभी बिखरती खुद से खुद को  गढ़ रही हूं.....        नीता झा

तलाक़ क्या होता है - नीता झा

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तलाक़ क्या होता है? पूछो बूढ़ी दादी से .... जिन्होंने मौत को मात दी थी तुम्हारी शादी की बात सुन तलाक़ क्या होता है? पूछो उन उदास जोड़ों से.... जिन्होंने दुनिया से बैर लिया अपने बच्चों की खातिर आज भी लड़ रहे हैं खुद से,दुनिया से और अपने टूटते अधेड़ सपनो से।। तलाक़ क्या होता है? पूछो उन अबोध रिश्तों से  जो तुम्हे आदर्श समझते तुम्हारी पीड़ा देख कर विवाह को ग़लत समझते हैं तलाक़ क्या होता है? उस बहन से पूछो... जो रोज़ सुनती है बात बे बात उलाहने साबित करना होता है जूझते रोज ही खुद को  तलाक क्या होता है? पूछो उन दो जोड़ी आंखों से जो तुम्हारी रोज़, रोज़ की फ़ूहड़ लड़ाई देखती हैं चुपचाप तुम्हारे कठोर उद्दंड आदेश को न मान दोनों हथेलियों से ख़ुद को पूरी ताक़त से दबती हैं इतना कि दर्द से आंसू निकले जब तुम बहुत उदास और अवसाद से भरे उसके पास आकर सोने के नाम पर पलकें भिगोते हो तभी वो नन्हे हाथ डरते सहमते तुम्हारे आए आंसू पोंछते हैं क्रोधवश पड़ी अकारण  मार से खुद को बचाते हैं तलाक़ क्या होता है? पूछो उस नन्ही ज़बान से  जिसे वयस्क ,अबोध फिक्रमंद, चालक,निर्णायक,विदूषकऔर  धूर्त सवालों के जव...

कितना आसान था कहना नीता झा

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कितना आसान था कहना... भूल जाओ,रात गई बात गई कितना मुश्किल है सम्हालना... मन के उस कोने को समझाना जो सतरंगी सपने सजाता आया... बरसों बरस,झूमता रहा उत्सव से गाता रहा  गीत तुम्हारे प्यार के... कैसे मनाऊं उस नादान को कहो छला जाता रहा था हर उस पल... जब दुआएं कर रही होती थी मैं तुम्हारी लम्बी उम्र की और तभी... किसी और के मोहपाश में तुम खिलखिलाते गुनगुनाते होते थे... कैसे सहन करूँ मैं तुम ही कहो मांग में ही बसे रहे तुम सदा मेरी... तुम पर मेरा कभी न कोई हक था सब जान भी मैं क्यों  इतनी बेबस...  क्या है जो रोक ही लेता है हर बार ।। क्या बहुत से अपने रिश्तों का ख्याल... या दुनियां के उठते अनगिनत सवाल।। नहीं पता पर तुम नहीं समझोगे कभी... जीते हुए पति की विधवा ख्वाहिशें।। सिंगार करना सुहाता ही नहीं और... अपनो से कह पाना आसान नही।। इसी लिए फेंकी नहीं वो चूड़ियां ... रखीं सन्दूक में छुपा ताले में बंद ।। वो याद दिलाती थीं प्यार तुम्हारा, वो याद दिलाती थीं समर्पण मेरा।। वो सिर्फ झूठा भ्रम ही तो था मेरा... सब छोड़ आई जिस साजन के लिए।। मेरा वजूद कुछ नहीं उनकी नज़रों में... मैं समाज म...
कुछ दर्द रुलाते जाते हैं कुछ दर्द रुलाते जाते हैं कुछ ज़ख्म न भुलाए जाते हैं टूट रही मन की माला और मनके बिखरे जाते हैं कुछ दर्द रुलाते जाते हैं कुछ ज़ख्म न भूलें जाते हैं हर सख़्श मुझे यूँ घूर रहा हर राज नजऱ से पूछ रहा रो रही आँखे जब मेरी जहां मुझे हंसने को बोल रहा जल रही आशाओं की नगरी मेरी यार हाथों में मशाल लिए खड़ा इतनी बस आशाएं जीवन से  प्यार के बदले प्यार मीले टूट रही अभिलाषा धोखे में मेरे गले छलावे का हार सजे                  नीता झा
मेरी चमक पे न जा ऐ दोस्त कहकशा हूं तेरे दिल से बहुत दूर कशीदे से जड़े जो जुगनू मुझमे वो तेरे ही दिए दर्द के क़तरे हैं              नीता झा
दर्द को किसने मेरा पता दिया मैं उसके लिए जीती रही और वो मेरी ही कब्र खोदता रहा  किससे कहूं और क्या ही कहूँ मेरा गुरुर ही मुझे छलता रहा मांग में क्या सिंदूर मेरी सजी वो  जागीर मुझे समझ बैठा वो कांधे अब पास नही मेरे जो ग़मो के बोझ उठाते मेरे वो आँचल का कोना भी साथ नही जो समेट लेता सारे ग़म मेरे            नीता झा
मेरी चमक पे न जा ऐ दोस्त कहकशा हूं तेरे दिल से बहुत दूर कशीदे से जड़े जो जुगनू मुझमे वो तेरे ही दिए दर्द के क़तरे हैं              नीता झा
दिवाली का आना क्या और दिवाली का जाना क्या घर की सफाई,गन्दगी की छटाई और अभावों के अहसासों का क्या कुछ तसल्ली मन मे के ठीक है, सब अच्छा होगा आशा है सामने झोपड़ी से टिमटिमाता दिया पुराने कपड़ों में मनती दिवाली दूसरों की आतिशबाजी में खुश होना उनका याद दिलाता है उनसे तो ठीक है पर नादान मन उदास होता है सोने की मिठाइयों को देख कर विचार आता है कहाँसे आया होगा सोना कहीं किसी मजबूर का मंगलसूत्र तो नही या किसी मजबूर का इकलौता जेवर तो नही या किसी मासूम को लूटा हुआ गहन तो नही कुछ भी हो मुझे इससे सरोकार नही होना चाहिए जिस गली जा नही सकती कभी उसका पता पूछ क्या और पता लगा कर करना क्या                         नीता झा
लहरों सी अनगिनत मजबूरियां अनवरत बहाने को आतुर बढ़ती मेरे वजूद को छलनी करती मुझसे सैकड़ों समझौते कराती और मैं पानी को थामती ,सम्हालती नन्ही शैवाल सी डोल रही हूं अपने आपको लहरों से भिड़ाती, लड़खड़ाती ,बलखाती  किसी तरह जमी हुई हूं               नीता झा
वो चन्द लकीरें  मेरी तन्हाइयों की तुम तक पहुंची कैसे फर्क नहीं पर यारा तुमने उन्हें न पहचाना वाहवाही नहीं तुमसे चाही सादगी भरी सहमति साथ घूमने की,सुख दुख  मिलकर साझा करने की, साथ खिलखिलाने की, गुनगुनाने की ओर एकसाथ जी भरकर रोने की यही तो प्यार है हां यही प्यार है जब ये होता है तनहाइयाँ नही होतीं रिश्तों की रुसवाईयाँ  भी नही होतीं     नीता झा

कर रही मरम्मत आजकल - नीता झा

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दो अनजान लोगों का विवाह के बंधन में बंध जाना वो भी उनके अपनो द्वारा रिश्ते जोड़ना हमारी भारतीय परंपरा है। हमारे यहां शादी बड़ा ही पवित्र बंधन होता है। जिसे दोनों बड़ी अच्छी तरह निभाते हैं।     एक समय ऐसा भी आता है जब हम अपने साथी के साथ रहने के इतने आदि हो चुके होते हैं कि उनकी उपस्थिति का अहसास नहीं होता न एक दूसरे के बिना रह पाते हैं और न एक दूसरे के लिए अलग से समय ही निकाल पाते हैं ऐसे में रिश्तों की मिठास कम होने लगती है। समय रहते इस सुनेपन को एक दूसरे के सामीप्य से न सँवारा जाए तो दूरियां बढ़ने की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता इसलिए अपने दाम्पत्य जीवन मे सरलता बनाए रखना पति - पत्नी दोनों का दायित्व बनता है। इन्ही भावनाओं को समर्पित मेरी रचना " कर रही मरम्मत आज कल" है..... अपने टूट रहे रिश्ते की..  कर रही मरम्मत आजकल।।  दिवाली की तरह....  कर रही सफाई आजकल।। हमारे प्यार की....  पुरानी सी हो चली इमारत।।  नए सिरे से फिर....  सँवार रही हूं आजकल।।   उबाऊ हुई बहुत....  कुछ चटख रंग रिश्तों में  सजा रही हूं आजकल।। मन के मैल स...
कितना बदल गया  मिजाज मेरा इन दिनों खुद की खैरियत भी  खुद से पूछते डर लगता है नही शामिल  तेरे दिलके गुलशन में   पता है फिर भी हूं व्याहता,  तेरे हर इक पल में   पैबस्त बरसों बरस पर यूँ मेहमान से  पेश आया नही करते  लाए हो जो इतने शान से  जीवन मे कभी दालान में बिठा कर  खुद किसी ओर के संग  लम्हे बिताया नही करते अदब से न बिठाओ तो  देर तक रुका नही करते हम इज्जतदार हैं जनाब  यूँ नही मिला करते कुछ तो बात होगी हम में के तुम्हारे कुनबे को  तमाम दुनिया  देखने के बाद  हम ही मिले चलो कुछ भरम रहा होगा  मान लेते हैं हो हमसे बेजार तो यूँ  हमे प्यार का भरम तो न दो आओ चलें उस जहां में  जहां तुम तुम नही मैं मैं नही हम हो कर जी लेते हैं  पर वहां तीसरा कोई और नही, तीसरा कोई और नहीं                नीता झा

मेरे मरे मन की रचनाएं - नीता झा।

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कब्र में उग आई घास सी... मेरे मरे मन से निकली रचनाएं!! मेरी तड़प,मेरी वेदना की... जीवंत निशानी मेरी रचनाएं!! वाह कहो या आह कहो... मेरे बस में नही ये लिखना!! लिख लेती हूं मन हल्का करने... ज्यों उगी मृत देंह टहनी!! जीवन भर बदन जो लगा था ... उन्हें चूस लहराती टहनी !! कब्र में उग आए घास सी... मेरे मरे मन से निकली रचनाएं!!             नीता झा
इंतज़ार करती है औरत चाहे घर आते ही सताए पर देहरी पे आंख लगाए देखती रहती है औरत क्यों इंतज़ार करती है? क्या अच्छा लगता है उसे घण्टों मेहनत कर बनाए सुस्वादु खाने में कमी सुनना पूरे परिवार को सम्हाल भी कोई काम ढ़ंग से नही करती, सभी उत्सवों के हिसाब से सजना, फिर पति का किसी और को ताकना अपने हिस्से की खुशियां  किसी और कि होते देखना मर्यादा का पर्याय बनाए घूंघट से पति की नजरों की बदमाशियां देखना, और भी बहुत कुछ घिनौनी मजबूरियां क्यों सहती है औरत खुद नही जानती जैसे सिर्फ वही गर्भ में बच्चे को सींचती आई सदियों से और ता उम्र सम्हालती रही जतन से और जरा सी नाकामयाबी बच्चे की सबका कोपभाजन उसे ही बनाती क्यों नही कहती की क्या है वो क्यों नही लपक लेती  उन तमाम उपलब्धियों को जो उसके आनन्द की पर्याय हैं क्यों वो बेसुरा ही सही गाती नही मुक्त कंठ से,थिरकती नही उन्मुक्त, हंसती नही ठहाके लगा कर और जीती नही खुद को खुश रखने क्या मिलता है दूसरों को सब देकर अपनी ऊर्जा से खुद को मिटा कर कुछ नही निसन्देह कुछ भी नही सिवाय लोगों के इस विचार के कि ये तुम्हारा काम है  तुम्हे हम सब देते हैं खाना, कपड़ा,नाम ...
कितना बदल गया  मिजाज मेरा इन दिनों खुद की खैरियत भी  खुद से पूछते डर लगता है नही शामिल  तेरे दिलके गुलशन में   पता है फिर भी हूं व्याहता,  तेरे हर इक पल में   पैबस्त बरसों बरस पर यूँ मेहमान से  पेश आया नही करते  लाए हो जो इतने शान से  जीवन मे कभी दालान में बिठा कर  खुद किसी ओर के संग  लम्हे बिताया नही करते अदब से न बिठाओ तो  देर तक रुका नही करते हम इज्जतदार हैं जनाब  यूँ नही मिला करते कुछ तो बात होगी हम में के तुम्हारे कुनबे को  तमाम दुनिया  देखने के बाद  हम ही मिले चलो कुछ भरम रहा होगा  मान लेते हैं हो हमसे बेजार तो यूँ  हमे प्यार का भरम तो न दो आओ चलें उस जहां में  जहां तुम तुम नही मैं मैं नही हम हो कर जी लेते हैं  पर वहां तीसरा कोई और नही, तीसरा कोई और नहीं                नीता झा
विवाह क्या है मेरे लिए एक अनुबन्ध , जुड़े रहने का  जीवन मे तुम्हारे वंशवृद्धि को संकल्पित एक अनुभव सब पा भी तुम्हारे दिल के कुछ दूर ता उम्र डेरा डाल आराम से रहना तुम्हारे सारे मालोअसबब की सदा बराबर की साझेदार बन इतराना किन्तु मुझे तोड़ देता है  अधिकारों का मकड़ जाल नही चाहिए मुझे तुम्हारी सल्तनत दे सको तो दिल के बाहर नही दिल मे जगह दो मिल सको तो दिल के सारे दरवाजे मुझपर खोलो नही चाहिए नाम और शोहरत बस अपने दिल की धड़कन में बसालो ताउम्र प्यार से बिताने को          नीता झा
आजकल कुछ बदली सी लगती हो न हंसती दिल से तुम पहले सी न वो जादुई मुस्कान अधर पर, न वो अल्हड़,तुम मस्त कलन्दर न मुझेमें गौर ही करती हो आजकल तुम बदली सी लगती हो मैं नही जो आ जाऊं बातों में तुम्हारी मैं नही जो अनकही व्यथा न समझूँ मैं मीत तुम्हारा सदा तुम्हारे पास ही हूँ  जानता हूँ बचपन से हाव भाव तुम्हारे तुम्हारी अनकही भी भांप लेता हूँ इसी आशंका से पूछ रहा हूँ क्यों तुम आजकल बदली बदली सी लगती हो मैं मौन हूं ,तुम सा मुखर नही, मैं स्थिर हूं तुम सा वाचाल नही  फिर भी हमारा नाता रहा हमेशा तुम न मुझसे मिल घर से निकलती न मैं तुम्हे सँवारे कहीं जाने देता पर अब न तुम मुझसे ही मिलती हो  न कहीं जाने में ही रुचि रखती हो कहाँ गया वो तुम्हारा मुझे निहारना टकटकी लगाए घण्टों मुझे ताकना फिर स्वछंद हंसी हंस कर हौले से मुझे देख अपनी जुल्फें सुलझाना मैं दर्पण में पड़ता प्रतिबिम्ब हूं तुम्हारा तुमसे ही तो प्रदुर्भाव है मेरा          नीता झा
तुम्हारी याद बहुत रुलाती है तुम पास नही यही जताती है मैं रो लूँ तो खुश हो जाती है तुम्हारी याद बहुत रुलाती है तुम मेरी आदत थीं तुम मेरी इबादत थीं पता था न तुमको मैं तुम बिन कुछ नही फिर क्यों चली गईं मैं महसूस कर पाती हूँ तुम्हे ,तुम्हारी हर बात तुम्हारा मुझे गोद मे उठाना प्यार करना, सबसे बेहतर बनाना बन गई लो सबसे बेहतर इतनी की खुदको मिटा भी हंसती, मुस्कुराती हूं अपने ग़म भूल  उन्हें हंसाती हूं और अपना सब कुछ  खत्म कर भी जीने के कुछ भी  बहाने गढ़ती हूं भीड़ में भी कोई  कैसे अकेला होता है, समंदर में घोंघा कैसे  प्यासा रहता है अब इन बातों को  जीने लगी हूं अम्मा मैं तुम्हारे बिना  बहुत अकेली हो गई हूं तुम्हे पता है ना  मैं कह नही पाती  दुख अपने अन्तस् मन के तुम्हारे बाद मैं किसी को दुखी नही लगी कुछ ने पहचाना ही नही मुझे कुछ से दर्द छिपाती ही रही पर अब दो रास्तों पे  उलझ गई हूं या सारे अवसाद छोड़  खत्म हो जाऊं या जूझ जाऊं  सारे अवसादों से और अपना एक  स्वतंत्र अस्तित्व बनाऊं                 नी...
तुम हो के नही समझ आता ही नही गिनती में हो, फेमली फोटो में हो सारे रिश्तों,नातों और दिल के जज्बातों में हो फिर ऐ दोस्त तुम ही बताओ तुम मेरे घर मे क्यों नही हो मैं तुम्हे चाहती हूं  अपने पास बिल्कुल ही पास महसूस करना चाहती हूं अपने हर पल में हो ख़ास मेरी सारी ज़िंदगी के ख़्वाब पर तुम हो के नही  समझ आता ही नही  नीता झा
तलाक़ क्या होता है उस बूढ़ी दादी से पूछो जिसने चमत्कारी रूप से मौत को मात दी थी पोते की शादी की बात सुन तलाक़ क्या होता है उन उदास जोड़ों से पूछो जिन्होंने पूरी दुनिया से बैर लिया अपने बच्चों की खातिर आज भी लड़ रहे हैं खुद से,दुनिया से और अपने टूट रहे अधेड़ सपनो से तलाक़ क्या होता है उन नन्हे नन्हे रिश्तों से पूछो जो तुम्हे अपना आदर्श समझते हैं तुम्हारी पीड़ा देख देख कर विवाह को ग़लत समझते हैं तलाक़ क्या होता है उस बहन से पूछो जिसे रोज़ सुनने होते हैं खुद अच्छी हो भी उलाहने बार बार साबित करना होता है अपने आपको उसेजूझना होता है  तलाक क्या होता है उन दो जोड़ी आंखों से पूछो जो तुम्हारी रोज़, रोज़ की फ़ूहड़ लड़ाई देखती हैं चुपचाप तुम्हारे कठोर उद्दंड आदेश को न मान दोनों हथेलियों से ख़ुद को पूरी ताक़त से दबती हैं इतना कि दर्द से आंसू निकले तलाक़ क्या होता है उन नन्ही हथेलियों से पूछो जो तुम्हारे कठोर वचन सुन कानो को ढंक लेती हैं कानो को ढंक लेती हैं जब तुम बहुत उदास और अवसाद से भरे उसके पास आकर सोने के नाम पर सोने के नाम पर पलकें भिगोते हो तभी वो नन्हे हाथ डरते सहमते तुम्हारे निकल आए आंसू पोंछते हैं कभी तु...
रेत से फिसलते रिश्ते कितनी तनहाइयाँ दे जाते हैं हर इक कण के गम में मुझे और जिम्मेदार बना जाते हैं मुट्ठी से कैसे भी समहलु  कण कण छन ते ही जाते हैं मेरे अपने अग्रज जब  काल के गाल में समाते जाते हैं मुझे अकेलापन और उदासी का घाव ता उम्र सहने दे जाते हैं अब टूट जाती हूँ जल्दी ही जब सम्हालने को मुझे सदा वो मजबूत कांधे नही मिल पाते हैं जब थक कर सोना चाहूं नींद भर आँचल के वो सूती कोने याद आते हैं वो माँ के आँचल से आती मसाले की खुशबू पिताजी का  बेइंतहां भरोसे का खज़ाना तोड़ देता है मुझे उनका न होना उनके कर्तव्यों को सहेजते बहुत से रिश्तों का बुजुर्ग हो जाना मुझे भी कमजोर कर देता है अपने बड़ों का कमजोर होना            नीता झा

संविधान, नियम की बात कही क्या - नीता झा

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संविधान,नियम की बात कही क्या हम बंजारों की टोली में खुद ही खुद को जी लेते हैं खुद ही खुद के रक्षक हैं कौन सी दौलत,कौन सा कायदा हमे सुरक्षा दे पाया है हर इक बन्दा मेलजोल कर हमपे अधिकार जताता है कहने को मिला सारा जहाँ मगर हक कहीं न मजबूत हुआ तब तक रहे महफ़ूज जगत में जब तक लोगों ने हमको बक्शा देवी उपासक भी अपने स्वार्थ में अपनी ही बेटी को मार रहे संविधान की बात कहें क्या हम तो हर  सर्वस्व लगा भी दोयम दर्जे में ही सिमट गए जब तक लड़के का एक घर और लड़की के दो घर होंगे अनन्त काल तक नईहर,पीहर उसे कभी न एक घर दे पाएंगे            नीता झा

चल फिर झूठ बोलते हैं - नीता झा

चल फिर झूठ बोलते हैं अपने अपनो को खुश करते हैं वफाओं के किस्से गढ़ते हैं चल फिर झूठ बोलते हैं अपने छलकते आंसुओं को कोई प्याज,हंसी जैसा नाम देते हैं और रुंधे गले की घुटती आवाज़ को नेटवर्क फेलियर का नाम देते हैं चल फिर झूठ बोलते हैं इतनी दूर हूं सबसे फिर भी  मेरी मायूसी में उनके अचानक याद कर भावुक होने की उलझन को किसी मनगढ़ंत उपलब्धी बता उनकी चिंता को बदलते हैं चल फिर झूठ बोलते हैं उन दो जोड़ी आंखों के अनकहे सवालों पर धीरे से भरम का चश्मा चढ़ाते हैं ऐ दिल अकेले में रो लें चल जी भर फिर अपने शुभचिंतकों को  बड़े प्यार से गुदगुदाते हैं चल फिर झूठ बोलते हैं        नीता झा

रात सुहानी बीत गई तो...... - नीता झा

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रात सुहानी बीत गई तो... समझो के सवेरा आ ही गया।। काले मेघों के रंग घनेरे... कुछ उजले से दिख जाएं तो।। समझो के सवेरा आ ही गया... सोई पड़ी आंखें खुल जाए तो।। समझो के सवेरा आ ही गया... मीत गगन के गाएं प्रभाती तो।। समझो के सवेरा आ ही गया... स्याह भुवन उजले हो जाएं तो।। समझो के सवेरा आ ही गया... और दुख सुख चाहे कितने भी हो।। सपनो के खट्टे मीठे अहसासों के... आंखों से क़तरे रिस जाएं तो।। समझो के सवेरा आ ही गया... इतिहास  सुनहरे गढ़ने के जब।। भाव मानस में आ जाए तो... समझो के सवेरा आ ही गया।। गृहस्थ जीवन के लोभ सभी... शून्यकाल से हो जाएं तो।। समझो के सवेरा आ ही गया...   वानप्रस्थ से भाव जागें तो।। समझो के सवेरा आ ही गया... क्या फर्क वन में या भवन में।। खुद को खुद में तलाश करो तो... समझो के सवेरा आ ही गया।। मन बैरागी मनुहार करे और... सुप्त चेतना जागृत हो जाए तो।। समझो के सवेरा आ ही गया... रात सुहानी बीत गई।। समझो के सवेरा आ ही गया... समझो के सवेरा आ ही गया।।          नीता झा

मुझसे चाहते हो मिलना.... नीता झा

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पूरे तीस साल बाद शांतनु छत्तीसगढ़ लौट रहा था। जब कॉलेज की पढ़ाई के लिए बैंगलोर के लिए निकला था बड़ा अटपटा लग रहा था। नए लोग नई बोली, भाषा शुरू - शुरू में तो मन बहुत घबराता था। फिर वह दादू के बताए नुस्खे अपना कर चिट्टी लिखने लगता अम्मा - पापा फोन लगाया करते थे तब सबसे बात हो जाती थी। कॉलेज के फोन में लाइन लगाकर बात करना अजीब लगता था धक्का मुक्की, छुटपुट अपशब्द और बहुत ज्यादा शोर - शराबे में प्रायः वो काम की बात भूल जाता था। घर मे सभी लोग बारी - बारी से लगभग एक सी ही बात करते ऐसे में काम की बातें प्रायः हो ही नहीं पाती थी। जब पहली बार  घर से कॉल आया था सिवाय रोने के न वो ही कुछ बोल पाया था न दादी, अम्मा, चाची, दीदी लोग तभी से वह सबको अलग अलग चिट्ठियां लिखकर एक ही लिफाफे में भेजा करता था जिसे तनु ही प्रायः सबको दिया करती थी। तनु उनकी पड़ोसन स्वामी अंकल की बेटी चुलबुली, चंचल, घुंघराले बालों वाली तनु की सलोनी सूरत उसकी आँखों के आगे तैर गई।        शांतनु और तनु का जन्म भी उन्ही सरकारी क्वाटर में हुआ था जहां पिछले चार सालों से स्वामी अंकल और पापा नई पोस्टिंग में आए थे द...

विरासतें..... नीता झा

विरासतें भी ख़ूब खेलती हैं  खूनी होलियां.... मारती हैं ख्वाहिशें हासिल करते ढेरों कंकड़, पत्थर.... शेष होती जिंदगी बनाने दीवार  कभी न गिरती... लाशों के ढेरों से बनती दीवार चमचमाते संगेमरमर के गुम्बद लपेटे खूनी पंजों के दंश... वो जौहर की लपटों की कालिख सिसकती जलियाँ की काली तारीख काश विरासतें दे सकतीं कभी.... मुट्ठी भर बीज खुशियों के, आंगन भर धूप गुनगुनी.... सोंधी खुशबू मटकी के दूध की.. वो सर्दी की गर्म मिठाई... और बरसात में भीगते लम्हे।।

अमर शहीद जवानो को नमन - नीता झा

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छलक रहे आंसू आखों में.. मन मे भरा है दृढ़ विश्वास।। समक्ष तस्वीर के जा लगी.. हार सदासुहागन के हाथ।। अमर शहीद की विधवा में.. भारत माता का इतिहास।। सभी अमर शहीदों जवानों को नमन करते हुए तथा उनके परिजनों को सादर अभिवादन के साथ आज हम भारत के वीर शहीदों तथा बहादुर जवानों व उनके अपने अपनो के विषय मे चिंतन करेंगे।    साथियों दुनियां के हर कठिन से कठिन इलाकों में हर मौसम में देश हित मे अपनी सेवाएं देना आसान नहीं वो भीअपनी तमाम सुविधाओं, प्यार, रिश्ते, दोस्ती इत्यादि  सभी सांसारिक, भावनात्मक सम्बन्धों को दिल मे बसाए अपनी बेहद दुर्गम ड्यूटी में डटे जवानों को तथा उनके परिजनों के हौसले के दम पर ही हर देश टिका है।    कथनी और करनी में बड़ा फर्क होता है। हम जो देशभक्ति की भावनाएं महसूस करते हैं। वे उन परिस्थितियों को जीते हैं।     दुश्मन के मंसूबों को असफल बनाना और देश को सुरक्षित रखना उनका उद्देश्य होता है। चाहे फिर इसमे उनकी जान ही क्यों न चली जाए। गलती से कभी दुश्मन देश के हाथों पकड़े गए तो कई बार मर्मान्तक पीड़ा भी साहनी पड़ती है। इसबीच उनकी पीड़ा को म...

योग और उसके विषय मे विमर्श - नीता झा

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कुछ सामान्य विचार जो योग करने से पहले प्रायः सभी के मन मे आते हैं। सच कहूं तो मेरे मन के सवाल हैं जो मैं सोचा करती थी। मेरे पिताजी रोज सुबह उठकर योग किया करते थे संतुलित दिनचर्या, खान- पान और सभी बुरे व्यसनों से आजीवन दूर रहने का ही परिणाम था, कि ९३ वर्ष की जायु में बिना किसी कष्ट के उनका गोलोकवास हुआ। उस दिन तक भी उन्होंने यथाशक्ति अपने दैनिक कार्य किए यह योग के अष्टांग नियमो के पालन के कारण ही सम्भव हुआ।   मेरा योग से परिचय उन्होंने ही कराया फिर जब विभिन्न आसनों के शरीर मे स्वास्थ्य सुख की अनुभूति हुई तो कई लोगों से सीखती रही यह क्रम अभी भी अनवरत चल रहा है। आज हम कुछ प्रश्नों के माध्यम से योग को महसूस करेंगे- प्रश्न १ - योग में ऐसा क्या है कि सुबह सुबह की प्यारी सी मीठी नींद खराब की जाए? उत्तर- एक सामान्य वयस्क व्यक्ति के लिए आठ से दस घण्टे की नींद पर्याप्त होती है। शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए न इससे कम सोना चाहिए और न ज्यादा अब ये तो सभी जानते हैं सुबह की वायु शुद्ध होती है। सुबह सूर्य की किरण से हमे विटामिन डी मिलता है। जब उठना ही है तो क्यों ना थोड़ी जल्दी ही...

नववर्ष स्वागत तुम्हारा - नीता झा

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  नव वर्ष स्वागत तुम्हारा आए हो तो ये कर जाना सुनी आंखें माँ की भीगीं उनमें आशा दीप जलाने बिखरी घर की व्यवस्था व्यवस्थित उन्हें करदेना टूटी आस बहुतों की है जीवन मे खुशियाँ लाना नववर्ष स्वागत तुम्हारा आए हो तो ये कर आना बस सच्ची कोशिश लेते आना बस सच्ची कोशिश लेते आना.....         वनवर्ष का आगमन हो गया है। आशा की नई किरण जागी है। हर कोई अपनी - अपनी परेशानियों के त्वरित हल की उम्मीद में हैं। काम या तो बन्द है; या धीमी गति से रेंग रहा है। किसी तरह इंटरनेट की बदौलत बच्चों की पढ़ाई चल रही है। लेकिन उनकी तमाम तरह की गतिविधियों में पूर्णतः रोक लग गई है। आर्थिक समस्याएं भी लोगों की परेशानी की वजह बनती जा रही है। ऐसे में चिंतित परिवार की कुंठा सहज ही समझी जा सकती है।      हम अपनी दृष्टि से देखें तो बच्चों को कोरोना वायरस से सुरक्षित रखने का इससे अच्छा कोई उपाय नहीं है कि वे अपने घर मे रहें साथ ही जब बच्चों के नज़रिए से देखा जाए तो वो बड़ी परेशानी में हैं। एक तो सारे फ्रेंड्स छूट गए सारी दिनचर्या बदल गई अभी सबके पास पर्याप्त समय है तो जो अभिभावक बच्...

साल अजीब सा बीत गया - नीता झा

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साल अजीब सा बीत गया.. कैसे इसे मैं मन मे बसाऊँ।। उथलपुथल है मस्तिष्क में.. क्या याद रखूं क्या बीसराउं।। भीड़ भरी सड़कों की सोचूं.. या लॉक डाउन की बोझिल।। वीरानी मैं याद रखूं .... सुनी शादी, शांत बारातें ।। या मरघट की कतारें याद रखूं... साल अजीब सा बीत गया... कैसे उसे मैं मन मे बसाऊँ।। कितने अपने छुटे मझधार... कितने सहमे फूल खिले।। नन्ही पौध की अगवानी याद रखूं... या विशाल दरख़्तों का ढहना याद रखूं।। साल अजीब सा बीत गया... कैसे उसे मैं मन मे बसाऊँ।। कुछ मेरे होते थे नज़दीक... जब भी मैं होती भयभीत।। अब पड़े बिस्तर में बीमार... कैसे उनसे दूरी मैं निभाऊं।। साल अजीब सा बीत गया... कैसे उसे मैं मन मे बसाऊँ।। छद्दम वेश में आए साधन... रोग - व्याध कैसे पहचानूं।। मेरे अपने तकलीफों में डूबे... अपनी व्यथा किसे सुनाऊं।। साल अजीब सा बीत गया... कैसे उसे मैं मन मे बसाऊँ।। कोरोना होता स्वयं उपजा... दर्द फिर कुछ कम ही होता।। धूर्त पड़ोसी की घृणित चाल... उसपे कभी क्या विश्वास करूँ।। साल अजीब सा बीत गया... कैसे उसे मैं मन मे बसाऊँ।। फिर भी बड़ी उम्मीदों से... स्वागत तुम्हारा नववर्ष करूँ।। अपनी सारी ऊर्...